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मूल द्रव्य हो सकता है। जैन दर्शन जड़वादी विचार अमान्य नहीं है किन्तु साथ-साथ आत्मवादी विचार भी उतना ही मान्य है जितना कि जड़वादी विचार। दोनों विचारों का योग होने पर ही जैनदर्शन यथार्थ बनता है। जैन दर्शन युगानुकूल भाषा में प्रेषित करने का श्रेय महाप्रज्ञजी को है।
___4. दशवैकालिक सूत्र में चार आवेगों (क्रोध, मान, माया, लोभ) की प्रतिपक्ष भावना का सुन्दर निरूपण दिया है। यदि क्रोध के आवेग को मिटाना है, कम करना है तो उपशम के संस्कार को पुष्ट करना होगा। क्रोध का प्रतिपक्ष है --उपशम का संस्कार जितना पुष्ट होगा, क्रोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जायेगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। मृदुता और मैत्री में कोई अंतर नहीं है। मैत्री, मृदुता का ही प्रतिफलन है। जब मृदुता है तो किसी के साथ शत्रुता हो ही नहीं सकती। लोभ के आवेग को नष्ट करना है तो सन्तोष को विकसित करें, उसे पुष्ट करें।
आवेगों को मिटाने के लिए प्रतिपक्ष के संस्कारों को पुष्ट करना है। जब तक प्रतिपक्ष का संस्कार पुष्ट नहीं होगा, आवेगों का अनुभव नहीं किया जा सकता। साधना में प्रतिपक्ष भावना का बहुत बड़ा महत्त्व है।
9. भौतिक विज्ञान ने इस सृष्टि का प्रारम्भ 'बिग-बेंग' से माना है। उसी समय पदार्थरचना के मूल कण क्वार्क भी उत्पन्न हुए हैं। वास्तविकता यह है कि क्वार्क के कण सभी समान न होकर, विरोधी गुणों वाले उत्पन्न हुए और उसी से पदार्थ रचना हुई। परस्पर में विरोधी गुणों का होना, इस प्रकृति की देन है। विज्ञान जगत में हलचल मची थी जब प्रकाश के व्यवहार में ज्ञात हुआ कि वह कण रूप व्यवहार करता है और लहर रूप भी व्यवहार करता है। इस द्वैध के कारण भौतिक विज्ञान की प्रगति रुक सी गई थी तब यह स्वीकार किया गया कि जहाँ कण हैं वहाँ लहर है और वहाँ लहर है यहाँ कण है। इसी समन्वय को लेकर विज्ञान की प्रगति हुई है। क्वांटम सिद्धान्त के अनुसार किसी भी परमाणु के दो इलेक्ट्रोन पूर्ण रूप से समान नहीं होते। असमानता के होते हुए भी सह-अस्तित्व की प्रकृति पदार्थ के मूल में हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि कि 'महाप्रज्ञ का प्रतिपक्ष का सिद्धान्त' सार्वभौमिक है। यह सिद्धान्त इस सृष्टि के भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार के द्रव्यों पर समान रूप से लागू होता है। यही इसकी सार्वभौमिकता है।
5 छ-20, महावीर कोलोनी जवाहर नगर, जयपुर (राजस्थान)
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121
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