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आचरण अथवा व्यवहार में परिवर्तन हो तो समझना चाहिए कि ध्यान की दिशा सही है और अगर परिवर्तन नहीं हो तो ध्यान की दिशा सही नहीं है। ध्यान के बिना निर्मलता, स्वस्थता और स्थिरता की कल्पना असम्भव है। 13
निष्कर्ष:
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान का द्विविध प्रयोजन है। प्रथम हमारे जीवनचर्या अथवा रहन-सहन में समुचित परिवर्तन और दूसरा मोक्ष की प्राप्ति । अतः जिस मानसिक एकाग्रता रूप क्रिया अथवा ध्यान से उक्त प्रयोजनों की सिद्धि होती है, वह ध्यान कहलाने योग्य है और अगर निर्दिष्ट प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो तो उसे केवल क्रियामात्र ही कहा जायेगा ।
यद्यपि 'मोक्ष' समाधि का परिणाम है तथापि ध्यान समाधि की पूर्व की स्थिति है । तात्पर्य यह है कि समाधि ध्यानपूर्वक ही सम्भव है, ध्यान के बिना समाधि की कल्पना असम्भव है । अतः समाधि का फल ही ध्यान का फल निर्धारित होता है । वैसे ध्यान का फल है समाधि और समाधि का फल है मोक्ष अथवा कैवल्य ।
सन्दर्भ
1. योगसूत्र 2/44
2. तत्त्वार्थसूत्र 9/27
3. वही, 9/28
4. वही, 9/29
5. वही, 9/31
6. वही, 9/32
7. वही, 9/33
8. वही, 9/34
9. तत्त्वार्थसूत्र 9/36
10. वही, 9/37
11. वही, 9/49
12. वही, 9/29-30
13. नया समाज : नया दर्शन, पृ. 162
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
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प्रवक्ता
संस्कृत विभाग डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर
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