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जलों के सम्यक् बरसने व बहने के लिए ऊँचे प्रदेशों पर वृक्षों का होना तथा निचले प्रदेशों में जल को संग्रहीत कर सुरक्षित रखना आवश्यक है, 26 अतः ऋग्वेद ऋग्वेद में कहा गया हैं कि तेजस्वी मनुष्य अपने उत्तम कर्मों के एक ओर ऊँचे प्रदेशों में गाय आदि पशुओं के लिए तृण उत्पन्न करें वहीं निचले प्रदेशों में पानी को सुरक्षित रखें।
एक स्थान पर एकत्रित जल प्रदूषित जो जाता है जबकि गतिशील जल प्रदूषण मुक्त रहता है। आपस्तम्ब स्मृति7 आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार निरन्तर बहने वाली जल की धारा कभी दूषित नहीं होती। ऋग्वेद ऋग्वेद में इन्द्र द्वारा सप्त सिन्धुओं के प्रवाह को गतिमान करने तथा रुके हुए जलों को प्रवहमान करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
प्रवाहित जलभी स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त तभी रह सकते हैं जबकि वे सूर्य के सम्मुख रहेंअमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता तो हिन्वन्त्यध्वरम्॥
पाराशर स्मृति पाराशर स्मृति के अनुसार वायु और सूर्य की किरणों से जल शुद्ध होता है। आपस्तम्ब स्मृति' आपस्तम्ब स्मृति में लिखा हैं कि जो जल सब प्रकार की शुद्धि करता है उसकी स्वयं की शुद्धि सूर्य की किरणों के उस पर पड़ने से, वायु के स्पर्श से और गाय के मूत्र एवं गोमय (गोबर) के गिरने से होती है। वेदों के अनुसार गायें जल को प्रदूषण मुक्त बनाने में विशेष उपयोगी हैं, अत: उस जल को विशेष पसन्द किया गया है जिस जल का पान गायें करती थीं। साथ ही हवि द्वारा भी जल को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयास किया जाता था
अपो देवीरूपये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्व हविः ॥
स्मृतियों में जल को प्रदूषित न किया जाये-इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय याज्ञावल्क्य स्मृति में कहा गया है कि थूक, रक्त, मल, मूत्र और रेतस आदि को कभी जल में नहीं डालना चाहिए।
वेदों ने जलीय स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान दिया है और स्वच्छ जलों की महत्ता को प्रतिपादित किया है। युजर्वेद के अनुसार जल पीने पर शीघ्र पच जाते हैं और पेट में जाकर अनुकूलता से सुख देते हैं। यक्ष्मा रहित, अन्य बीमारियों से रहित, निष्पाप, द्योतमान, अमृतस्वरूप तथा सत्य के वर्धक जल सुस्वादु होते हैं । अथर्ववेद ने भी स्पष्ट कहा है कि जलों का मधुर रस से सम्पन्न कभी भी क्षीण न होने वाला रस चक्षु आदि प्राण के साथ और बल के साथ मनुष्य को प्राप्त हो तभी वह देख और सुन सकेगा।
वस्तुतः शुद्ध जल पृथिवी के सारे पर्यावरण को पवित्र कर देते हैं जिससे पृथिवी पर ही स्वर्ग बन जाता है-शुद्धाः सतीस्ता उ शुम्भन्त एव ता नः स्वर्गमभि लोकं नयन्त। 36
अत: हमारा दायित्व है कि हम पृथ्वी पर स्वर्ग के अवतरण के लिए जलों को संरक्षण देने का संकल्प लें। इसी में मानव जाति का हित और विकास निहित है। 68 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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