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पुद्गलास्तिकाय एक विमर्श
समणी मंगलप्रज्ञा
सभी भारतीय दर्शनों में पृथक्-पृथक् नाम से पुद्गल की अवधारणा पर विमर्श हुआ है। चार्वाक दर्शन में भूत', सांख्यदर्शन में प्रकृति, न्याय-वैशेषिक में जड़-द्रव्य, बौद्ध में रूप', शंकर वेदान्त में माया एवं जैन में पुद्गल के नाम से इसके स्वरूप पर विमर्श हुआ है। आधुनिक भौतिक विज्ञान भी मुख्य रूप से पुद्गल पर ही आधारित है। यही एक ऐसा तत्त्व है जो दर्शन और विज्ञान-इन दोनों के कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट है। हम इस प्रस्तुत प्रबन्ध में पुद्गल से सम्बन्धित उन कतिपय अवधारणाओं का ही उल्लेख करेंगे जो आगमोत्तर साहित्य में अल्पमात्रा में चर्चित हुई हैं। अन्य दर्शनों से अथवा विज्ञान के साथ तुलना का प्रयत्न प्रसंग प्राप्त कदाचित् ही हो सकेगा। उन संदर्भो के लिए पाठक Concept of Matter in Jaina Philosophy' आदि पुस्तकों का अवलोकन कर सकते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हो वह पुद्गल कहलाता है। वह रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं गुण के आधार पर उसकी मीमांसा की गई है।
द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा वह लोकप्रमाण है। काल की अपेक्षा नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भाव की अपेक्षा से वर्णवान, गंधवान, रसवान और स्पर्शवान है। गुण की अपेक्षा से ग्रहणगुण-समुदित एवं विभक्त होने की योग्यता वाला है। संघात और भेद, मिलना और बिखरना पुद्गल का असाधारण गुण है।' चार अस्तिकायों में केवल संघात है, भेद नहीं है । भेद के बाद संघात और
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
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