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आत्म-समाधि और वैयावृत्त्य
-साध्वी मुदितयशा
अध्यात्म का आधार तत्त्व है-आत्मा। वह स्वरूप से परम विशुद्ध, निरंजन, निराकार और चैतन्यमय असंख्य प्रदेशों का अविभाज्य पिण्ड है। उस परम विशुद्धि की अवस्था को उपलब्ध करने के लिए साधक अनेक सोपानों को पार करता है। साधना की अनेक प्रविधियों से अपने अन्तःकरण को भावित करता है। 'तपस्या' साधना की एक महत्त्वपूर्ण प्रविधि है। भगवान् महावीर ने तपस्या की व्यापक सन्दर्भो में व्याख्या कर साधना का सुन्दर मार्ग प्रस्तुत किया है। तपस्या के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर।' बाह्य तपस्या का संबंध स्थूल शरीर से है। सूक्ष्म शरीर तक पहुंचने के लिए स्थूल शरीर को साधना आवश्यक है। बाह्य तप के अन्तर्गत आहार, आसन, प्राणायाम और इन्द्रिय-संयम के विभिन्न प्रयोगों द्वारा पहले स्थूल शरीर को साधा जाता है। आभ्यन्तर तप वह शक्ति है जो हमारे सूक्ष्म शरीर को प्रकंपित करती है। उत्तराध्ययन सूत्र की बृहद्वृत्ति में वृत्तिकार ने बाह्य और आभ्यन्तर तप की भेदरेखा को अनेक हेतुओं द्वारा स्पष्ट किया है।' वैयावृत्त्य : परिभाषा, स्वरूप और प्रयोजन । - आभ्यन्तर तप का एक प्रकार है- वैयावृत्त्य। वैयावृत्त्य का सामान्य अर्थ है-सेवा। शाब्दिक दृष्टि से किसी संयमी साधक की साधना में सहयोग करना, उसे शुद्ध आहार, औषध, उपधि आदि लाकर देना एवं उसके अन्य कायों में व्याप्त होना वैयावृत्त्य है। वैयावृत्त्य करने वाला निरवद्य विधि से गुणीजनों के दुःखों को दूर करता है। आचार्य अकलंक के अनुसार कोई भी आचार्य आदि परीषह, मिथ्यात्व
और रोग आदि उपद्रव से ग्रस्त हो जाए उस समय प्रासुक औषधि, भक्तपान, प्रतिश्रय, पीठ, फलक, संस्तरण आदि धर्मोपकरणों के द्वारा व्याधि, परीषह आदि का निवारण करना तथा सम्यक्त्व में पुनः स्थापित करना वैयावृत्त्य है। व्यवहार
भाष्य में वैयावृत्त्य के तेरह द्वार उल्लिखित हैं।' तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 -
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