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किया वरन् आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित करने के लिए उपदेशात्मक शैली के साथ शृंगारिक शैली का भी सहारा लिया। लोक मानस में प्रचलित आदर्शों को, चाहे वे वैदिक साहित्य के विषय ही क्यों न हों, जैन कथाकारों ने अपने कथानक का विषय बनाया और उन कथानकों को जैनधर्म के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया, जिसमें वे अधिकतम सफल कहे जा सकते हैं। जैन साहित्य की उपलब्धियों और विशेषताओं का आकलन करने वाले विदेशी विद्वान् विन्टरनित्ज ने कहा है कि "श्रमण साहित्य का विषय मात्र ब्राह्मण, पुराण, निजन्धरी कथाओं से नहीं लिया गया है बल्कि लोककथाओं, परीकथाओं से ग्रहीत है।''10 जैन कथा साहित्य की व्यापकता एवं महत्ता के सम्बन्ध में प्रो. हर्टेल ने अपनी पुस्तक "आन दी लिटरेचर ऑफ दी श्वेताम्बर ऑफ गुजरात"11 में विस्तार से विवेचन किया है और स्पष्ट किया है कि जैनों का बहुमूल्य कथा साहित्य पाया जाता है, जिनमें कथाओं के माध्यम से अपने सिद्धान्तों को जन-साधारण तक पहुँचाया गया है।
जैन प्राकृत कथा साहित्य के विषयों का वर्गीकरण करके यदि अध्ययन किया जाये तो लगता है कि जीवन के किसी भी पक्ष को उसमें अछूता नहीं किया गया। सामान्य जीवन के अनेक, पक्षों जैसे ऋतुएँ, वन, पर्वत, नदी, उद्यान, जलक्रीड़ा, चन्द्रोदय, नगर, राजा, सैनिक, युद्ध, महोत्सव, स्वयंवर, हस्ति, रथ, स्त्रीहरण, साधु-उपदेश, धर्म, दर्शन, अंधविश्वास, लोक परम्पराएँ आदि समस्त पक्षों को उजागर किया गया है। युग के समाज का स्पष्ट रूप इन कथा ग्रंथों में दिखाई देता है। अतः प्राकृत कथा साहित्य का धर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति, समाज, राजनीति, आर्थिक आदि दृष्टि से अध्ययन स्वतन्त्र विधा के रूप में महसूस किया जाता है।
प्राकृत कथा साहित्य का प्रणयन ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से लेकर 17-18वीं शताब्दी तक अनवरत रूप से किया जाता रहा है। तत्पश्चात् भी प्राकृत कथाएँ लिखी जाती रहीं, जिसका प्रचलन आज भी श्रमण वर्ग में दिखाई देता है। अभी तक प्राप्त प्राचीन प्राकृत कथा साहित्य में तरंगवईकहा, वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, कुवलयमालाकहा, लीलावईकहा, निर्वाणलीलावती, कथाकोश प्रकरण, संवेगरंगशाला नागपंचमीकहा, कहारयणकोस, नम्मयासुन्दरीकहा, कुमारपालप्रतिबोध, आख्यानमणिकोश, जिनदत्ताख्यान आदि प्रमुख कथा ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त और भी शताधिक रचनाएँ गिनाई जा सकती हैं किन्तु ऐसी हजारों रचनाएँ अभी भी ग्रंथ भण्डारों में पड़ी हुई हैं जो अद्यतन प्रकाश में नहीं आ सकी।
इन सब कथाओं के स्मरण में बृहत्कथाकोश (गुणाढ्यकृत) को भुलाया नहीं जा सकता। पैशाची भाषा की यह रचना प्राकृत कथाओं का कोश कही जाती है। अतः समूचा प्राकृत कथा साहित्य जैन मान्यताओं के विश्लेषण एवं विवेचन में पर्याप्त सफल कहा जा सकता है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत के तत्त्व भी इस साहित्य में प्राप्त होते हैं।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
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