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कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धान्त सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है। प्रयोग परिणत पुद्गल
शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है वह प्रयोग परिणत पुद्गल है।80 प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के संदर्भ में विचार करते हैं तब जैन मान्य सृष्टि के दो रूप बनते हैं ---1. जीवकृत सृष्टि, 2. अजीव निष्पन्न सृष्टि । जीवकृत सृष्टि
प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के माध्यम से जो शरीर आदि की संरचना आदि होती है उसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह प्रयोग परिणति है। इसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीवकृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है।
शरीर और इन्द्रिय पौद्गलिक हैं । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श- ये पुद्गल के गुण हैं 132 संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीवकृत सृष्टि का नानात्व पुद्गल द्रव्य के संयोग से होता है, इसलिए उसके निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है, वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है।3।।
____ जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है-अभोगिक और अनाभोगिक। इच्छा-प्रेरित कार्य करने के लिए वह अभोगिक वीर्य का प्रयोग करता है और अनाभोगिक वीर्य स्वतः चालित है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनाभोगिक वीर्य से होता है। भगवती में प्रयोग परिणत के प्रकरण में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच, वर्ण के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित हैं। इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित है।
प्रयोग-परिणत पुद्गल द्रव्य का उदाहरण एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत द्रव्य है। इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है। किंतु दोनों के स्वरूप में भिन्नता है। एकेन्द्रिय जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों से औदारिक शरीर की रचना की है, वे पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं।
एकेन्द्रिय जीव के मुक्त शरीर का स्वभाव से परिणामान्तर होता है। वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत है। इसमें जीव का पूर्वकृत प्रयोग तथा स्वभाव से रूपान्तरण ये दोनों परिणमन विद्यमान हैं। 10 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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