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इस आलेख में हमारा मूल लक्ष्य जैन साहित्य और उसमें निहित दर्शन की प्रासंगिकता का प्रतिपादन करना है, अत: जैन धर्म-दर्शन से संबंधित साहित्य एवं तत्सम्बन्धी ऋषिमुनियों, श्रावकों की रचनाओं के आलोक में अपनी बात को प्रमाणित करने का ही प्रयत्न यहां रहेगा।
जैन धर्म-दर्शन परम्परा में तीर्थंकरों का विशिष्ट महत्त्व है । इन्हीं की वाणी जैन साहित्य का मर्म है। शास्त्रीय दृष्टि से यह अंग और उपांग संज्ञाओं से अभिहित हैं । इन रचनाओं के लिए श्रमण - संस्कृति में आगम ग्रंथ सन्दर्भ नाम भी प्रचलित हैं । इनका वही महत्त्व है जो ब्राह्मण संस्कृति में वेदों का । जीवन का परम लक्ष्य है सत्य । भगवान् महावीर ने अपने उद्देश्यों में सतर्क प्रतिपादन किया है । यद्यपि जैन तीर्थंकरों द्वारा प्रतिबोधित उपदेश अति प्राचीन हैं। आज का वातावरण उस काल विशेष से नितान्त भिन्न है, फिर भी इतना बड़ा जैन समाज आज इक्कीसवीं सदी के आरंभ में भी पूर्ण विश्वास के साथ उनकी पालना कर रहा है।
आज सर्वत्र औद्योगिक क्रांति, भौतिकवादी ऊहापोह तथा वैश्वीकरण से मानव-जीवन संत्रस्त हैं। इस वातावरण ने प्रत्येक सामाजिक के चिंतन को झकझोरा है और उसमें अनेक असीमित लालसाओं को बढ़ाया है। इस नये दृष्टिकोण को सिर्फ मानव की आध्यात्मिक प्रवृत्ति ही समन्वित कर सकती है। धर्म-तत्व अथवा भक्तियोग दोनों ही ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियों में विद्यमान हैं। इसीलिए श्रमण संस्कृति से सम्बंधित दार्शनिक सिद्धांतों से देश, समाज एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय स्थापित किया जा सकता है। जैन धर्म-दर्शन का स्याद्वाद, सम्यक् त्रय, पंचव्रत, अणुव्रत सम्बन्धी विचारधाराएं इसके प्रमाण हैं। उदाहरणार्थ मोक्ष की अवधारणा को लें। ब्राह्मण दर्शन में सद्कर्मों द्वारा मोक्षप्राप्ति की बात कही गई है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी भगवान् महावीर ने इसी सत्य को उद्घाटित किया है
थथुई मंगलेण भन्ते, जीवे किम् जणयई?
थव थुई मंगलेणं दंसण चरित्त बोहिलाभं जणयई ।
णाण चरित्त बोहिलाभं संपन्ने थणं जीवे अंत करियम् । कप्प विमाणो ववत्तयं आराहणं आहेइ ।
अनेक पंथों और सम्प्रदायों के अस्तित्व में आ जाने तथा भारत की धर्मनिरपेक्षता प्रवृत्ति के कारण ब्राह्मण धर्म-दर्शन की काफी अवहेलना हुई है। साथ ही ब्राह्मण धर्मदर्शन की उदार भावना के कारण भी यहां धार्मिक सहिष्णुता रही। इसके विपरीत श्रमण धर्म-दर्शन का विकास सुधारात्मक प्रवृत्ति के कारण हुआ । जागतिक सम्बन्धों का निषेध कर चित्तवृत्तियों को संयमित रखते हुए आत्मस्थ होकर साधनारत हो आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त करना ही श्रमण संस्कृति में जीवन का लक्ष्य है। प्रेयस् का निषेध और श्रेयस् की प्रतिष्ठा है, 'अतः इसके अनुयायियों ने पूरी श्रद्धा के साथ इसे ग्रहण किया। पंच महाव्रत, ध्यान, सामायिक आदि ने वर्तमान युग में फैलती भौतिकवाद की चकाचौंध में अपनी उपादेयता को बनाये रखा है।'
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002
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