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आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्य तथा भावबंध के विषय में इस प्रकार कहा है -
वज्झदि कम्मं जेण द चेदणभावेणभावबंधो सो।
कम्मादपदेसाणं अण्णाण्ण पवेसणं इदरो॥ चैतन्य की जिस रागादि रूप परिणति के द्वारा कर्मों का बंध होता है, उसे भावबंध कहते हैं। कर्मों और आत्मा का परस्पर प्रवेश हो जाना द्रव्यबंध है।
क्या आत्मा सर्वथा अमूर्तिक है? – आत्मा और कर्मों के सम्बंध के विषय में अनेकांत दृष्टि को स्पष्ट रूप से समझाते हुए पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आगम की यह गाथा उद्धृत करते हैं -
बंधपडि एयत्तं लम्खवादो हवदि तस्स णाणत्तं।
तम्हा अमुत्तिभावो णेगंतो होदि जीवस्स। बंध की अपेक्षा जीव और कर्म की एकता है। स्वरूप की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है, इससे जीव के अमूर्तपने के बारे में एकांत नहीं है।
कर्म मूर्त्तिक क्यों है? - जयधवला टीका (1/57) में लिखा है
तं पि मुत्तं चेव। तं कथं णव्वदे? मुत्तो सह सम्बन्धेण परिणामांतरगमण ण्णाहाणुववत्तोदो। ण च परिणामान्तर गमणमसिद्धं, तस्य तेण विणा जर कुट्ठक्खयादीणं विणासाणुववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो-कर्म मूर्त हैं। इसका कारण यह है कि यदि कर्म को मूर्त न माना जाए तो मूर्त औषधि के सम्बंध से परिणामान्तर की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि ग्रहण करने से रोग के कारण कर्मों की उपशांति देखी जाती है, वह नहीं बन सकती है। औषधि के द्वारा परिणामान्तर की प्राप्ति असिद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामान्तर के अभाव में ज्वर, कुष्ठ तथा क्षय आदि रोगों का विनाश नहीं बन सकता। अतः कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति होती है, यह बात सिद्ध होती है।
- कर्म मूर्तिमान तथा पौद्गलिक है। जीव अमूर्त्तिक तथा अपौद्गलिक है, अत: जीव से कर्मों को सर्वथा भिन्न मान लिया जाए तो क्या दोष है? इस विषय में वीरसेन आचार्य जयधवला में इस प्रकार प्रकाश डालते हैं-जीव से यदि कर्मों को भिन्न माना जाए तो कर्मों से भिन्न होने के कारण अमूर्त जीव का मूर्त शरीर तथा औषधि के साथ सम्बंध नहीं हो सकता। इससे जीव तथा कर्मों का सम्बन्ध स्वीकार करना चाहिए। शरीर आदि के साथ जीव का सम्बन्ध नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि शरीर के छेदे जाने पर दुःख की उत्पत्ति होने से जीव तथा कर्मों का सम्बन्ध सूचित होता है। एक के छेदे जाने पर सर्वथा भिन्न दूसरी वस्तु में दुःख की उत्पत्ति नहीं पाई जाती। ऐसा मानने पर अव्यवस्था होगी।22
__ कर्म आगमन का द्वार-आत्मा में कर्मों के प्रवेश द्वार को आस्रव कहा गया है। मनोवर्गणा, वचनवर्गणा तथा कायवर्गणा में से किसी एक के अवलम्बन से आत्म प्रदेशों में सकम्पता उत्पन्न होती है, उससे कर्मों का आगमन हुआ करता है, इसे ही योग कहते हैं । तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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