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________________ इस प्रकार प्रतीत होता है कि भगवान् बुद्ध ने धम्मचक्क का प्रवर्तन विश्व के प्राणियों को दुःख से छुटकारा दिलाने के लिए किया था। उनका धम्म करुणा, अहिंसा, मैत्री, अप्रमाद और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों की स्थापना करने वाला है। व्यक्ति और समाज के विकास और सुख को बढ़ाने वाले प्रश्नों का बुद्ध ने समाधान किया है, शेष गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों को उन्होंने अव्याकृत कहकर सामाजिक और व्यक्तिगत बुद्धि के दुरुपयोग को रोका है। बोधिसत्व सिद्धान्त सामाजिक उत्थान का महत्त्वपूर्ण आधार है। संवेदनशीलता का विस्तार इससे समाज में हुआ है। समाज में शुभ संकल्प की संरचना एक अच्छे नगर की संरचना के समान है। भगवान् बुद्ध ने इसी सामाजिक कल्याण के परिप्रेक्ष्य में वर्ण व्यवस्था और पारिवारिक दायित्वों की शिक्षा दी है। गृहस्थ के आचरण धम्म से कैसे जुड़े रहें, इस पर भगवान् बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है। नारी के सम्मान और सामाजिक न्याय के दृश्य भी उनकी शिक्षाओं में झलकते हैं, अत: भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का सामाजिक विकास से गहरा सरोकार है। सन्दर्भ : 1. महापरिनिब्बानसुत्त, पृष्ठ 144 2. बहुं वे सरणं यन्ति पब्बतानि वनानि च । आराम रूक्खचेत्यानि मनुस्साभय तज्जिता॥ नेतं खो सरणं खेमं नेतं सरणमुत्तमं । नेतं सरणमागम्मं सब्ब दुक्खा पमुच्चति ॥ - धम्मपद्, 188, 189। 3. वही, 190-192 4. हत्थिपेदोपसमसुत्त (मज्झिमनिकाय, 1/3/7) 5. बौद्ध-दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग-1, पृष्ठ 120-121 6. यथापि रहदो गम्भीरो विप्पसीदन्ति अनाविलो। एवं धम्मानि सुव्वान विप्पसीदन्ति पण्डिता ।। -धम्मपद,82। 7. तुम्हेहि किच्चं आतप्पं अक्खातारो तथागता। पटिपन्ना पमोक्खन्ति झायिनो मारबन्धना ॥ -वही, 2761 8. दीघनिकाय, द्वितीय भाग, पृष्ठ 233 । 9. पाणितिपातो अदिन्नादानं मुसावादी च वुच्चति । परदारगमनचेव चप्पसंसन्ति पण्डिता॥ -सिंगालोवादसुत्त, दी. 8.1.4 10. मेत्तसुत्त 4-5 11. माता यथा नियं पुत्तं आयुसा एकपुत्तमनुरक्खे। एवं पि सव्वभूतेसु मानसं भावये अपरियाणं॥ -वही,7 12. मेत्तसेत्त, सुत्तनिपात, 1-10 | 13. सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पद। स-चित्त परियोदपनं एतं बुद्धानं सासनं ।। -धम्मपद, 183 । 14. न नग्गचरिया न जटा न पड्क । नानासकाथण्डिलसायिका वा। रजो वजल्लं उक्कुटिकप्पधानं । सोधेन्ति मच्चं अवितिष्णकड्ख ॥ -धम्मपद, 141 तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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