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तप्त लोह की भांति जलती हुई अग्नि जैसी भूमि पर चलते हुए वे जलने पर करुण रुदन करते हैं, वे बाण से बींधे जाते हैं और तपे हुए जुए से जुते रहते हैं। (1) तओवमं-अग्नि जैसी
सा तु भूमि..........न तु केवलमेवोष्णा । ज्वलितज्योतिषाऽपि अणंतगुणं हि उष्णा सा, तदस्या औपम्यं तदोपमा। (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 135) ___ एवां तदेवंरूपां तदुपमां वा भूमिम्। (सूत्रकृतांग वृत्तिपत्र 135)
यह भूमि का विशेषण है। इसका संस्कृत रूप है 'तदुपमाम्'। वह भूमि केवल उष्ण ही नहीं है किन्तु अग्नि से भी अनन्त गुण अधिक उष्ण है। (2) ते डझमाणा-वे जलने पर
ते तं इंगालतुल्लं भूमिं पुणो पुणो खुंदाविजंति । (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 135)
नरकपाल धधकते अंगारे जैसी उष्ण भूमि पर नैरयिकों को जाने-आने के लिए विवश करते हैं।
समूसियं णाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति। अहोसिरं कटटु विगत्तिऊणं, अयं व सत्थेहि समूसवेंति ॥ (सूयगडो 5/2/8)
वहां एक बहुत ऊंचा विधूम अग्नि का स्थान है, जिसमें जाकर वे नैरयिक शोक से तप्त होकर करुण रुदन करते हैं। नरकपाल उन्हें बकरे की भांति औंधे सिर कर, उनके सिर को काटते हैं और शूल पर लटका देते हैं। विधूमठाणं
(१) विधूमो नागाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलित: सेन्धनस्य ह्यग्नेरवश्यमेव धूमो भवति अथवा विधूमवद्, विधूमानां हि अङ्गाराणामतीव तापो भवति। (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 136)
चूर्णिकार ने बताया है, जो अग्नि ईंधन से ही प्रज्वलित होती है, उससे धुआं अवश्य ही निकलता है। नरक की अग्नि निरिन्धन होती है।
सयाजलं ठाण णिहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अकट्ठो। चिटुंति तत्था बहुकूरकम्मा, अहस्सरा केइ चिरट्टिईया ॥ (सूयगडो 5/2/11)
सदा जलने वाला एक महान् वधस्थान है। उसमें बिना काठ की आग जलती है। वहां बहुत क्रूर कर्म वाले नैरयिक जोर-जोर से चिल्लाते हुए लंबे समय तक रहते हैं।
जहा इहं अगणी उण्हो, एत्तोणंतगुणे तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेइया मए॥ (उत्तरज्झयणाणि 19/47)
जैसे यहां अग्नि उष्ण हैं, इससे अनन्त-गुना अधिक दुःखमय उष्ण-वेदना वहां नरक में मैंने सही है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 2
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