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थे। दांतों की सफाई के लिए आले में तिनके रखते थे, उसे लेने के लिए वे वहां जाते थे। प्रश्नकर्ता ने प्रतिप्रश्न किया-किन्तु तुम्हारे लिए वहां जाना क्या अनिवार्य है? वह बोला-यह मैं नहीं जानता। पिताजी ऐसा करते थे, इसलिए मैं भी ऐसा करूँगा। यह एक अर्थहीन रूढ़ि है। मात्र निरर्थक परंपरा है।
एक होती है आर्थिक परम्परा और एक होती है अर्थहीन परंपरा । सार्थक परंपरा को चलाना बहुत जरूरी है, उसके बिना काम नहीं चलेगा, किन्तु वह परम्परा सार्थक होनी चाहिए। अर्थहीन परम्परा का भार ढोना कोई बुद्धिमानी नहीं है।
बहुत सारे सिद्धान्त ऐसे हैं, जिनकी आज के वैज्ञानिक युग में समीक्षा करना बहुत जरूरी हो गया है। कर्म का सिद्धान्त, जीव का सिद्धान्त, यह सब बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। बहुत वर्ष पहले की बात है। हम भीनासर में थे। रात्रि में एक प्रोफेसर आया। था तो तेरापंथी श्रावक ही पर वह वैज्ञानिक सोच वाला व्यक्ति था। उसने आकर कहा-आप लोग जीव की बात बतलाते हैं, पर जब तक बायोलोजी का गहरा अध्ययन नहीं होगा, तब तक आपकी बात चलेगी नहीं। मैंने कहा-तुम्हारी बात ठीक है। हम दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं। हमने उसे सारी बात बताई। उसने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-यह अच्छी बात है। ऐसा होना ही चाहिए। आज क्लोनिंग की बात सामने आई है। ऐसे में कहां टिकेगा हमारा कर्मवाद
और जीववाद। बड़ा विचित्र प्रश्न है। जहां आदमी भेड़ और बकरी पैदा कर सकता है और हॉल में ही किसी वैज्ञानिक ने कम्प्यूटर की टैक्नोलोजी का उपयोग करते हुए आदमी को ही कम्प्यूटर बना दिया। जहां ऐसी नित नई वैज्ञानिक प्रगतियां और खोजें हो रही हों, वहां हमारे धार्मिक जगत के लोग केले के छिलके पर ही अटके रहें, यह कहां की युक्तसंगत बात है? बिना अन्वेषण के हम कहीं पहुंच नहीं पाएंगे। आज का पढ़ा-लिखा आदमी उनकी बात को मानने के लिए तैयार भी नहीं होगा। हमें बहुत ध्यान देना होगा। अगर आज जैनधर्म की विश्व में दो-चार बड़ी लेबोरेट्रियां होती, वहां नए और पुराने सिद्धान्तों पर प्रयोग और प्रशिक्षण चलते तो नए-नए सिद्धान्तों का विकास होता। तब वह सजीव दर्शन होता। आज तो बिना प्रयोग और खोज के उसे सजीव कहने में भी संकोच का अनुभव हो रहा है। बस, केवल दुहाई देने के सिवाय और कुछ भी हमारे पास नहीं है। हमको चिन्तन करना है कि इस दिशा में क्या किया जाना चाहिए?
मैं बहुत छोटा था, तब यह प्रश्न आता था कि अब साम्यवाद आ गया, ऐसे में कर्मवाद का क्या होगा? मैं बड़े विश्वास के साथ कहा करता था कि चिन्ता की कोई बात नहीं। इससे कर्मवाद की मान्यता झूठी नहीं हो जाएगी। कर्मवाद का सिद्धान्त कायम रहेगा। बड़े हुए तो और भी बहुत से प्रश्न सामने आए और अब यह जीन का प्रश्न सामने है। एक-एक कोशिका के द्वारा नए-नए जीव पैदा करने का, क्लोन का, कृत्रिम गर्भाधान का। पिछले वर्ष क्लोन के प्रश्न पर हमारे साधु-साध्वियों ने कहा-हमारी मान्यताओं से इसकी संगत कैसे बैठेगी? मैंने कहा-चिन्ता की कोई बात नहीं। हमारी खोजें और अनुसंधान जो इस दिशा में चल रहे हैं, कोई समाधान अवश्य देंगे। हम इन विधियों को पहले से जानते हैं। एक जैन ग्रन्थ था-जोणी पाहुड़। पूर्व का एक अंग है-जोणी पाहुड़। उस ग्रन्थ में सचित्त द्रव्यों की, वस्तुओं की योनियां
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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