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________________ ३१. हमारी भावना पृथक् है, शरीर की स्थूल ३१. भावना से शरीर की स्थूल क्रिया प्रभावित क्रिया पृथक् है। होती है। ३२. हम सुख-दु:ख के द्वन्द्वों में जीते हैं। ३२. सुख-दुःख के द्वन्द्व हमारे मन की उपज __है। हम सुख-दुःख से परे हैं। ३३. हम निरन्तर बदल रहे हैं। ३३. हमारे अस्तित्व का दृश्य भाग बदलता है, साक्षी भाग नहीं। ३४. जैसे हम बूढ़े होते हैं वैसे कमजोर हो ३४. कमजोर होना जरा है, परिपक्वता वार्धक्य जाते हैं। है। अवस्था बढ़ने पर शरीर जीर्ण हो सकता है, किंतु परिपक्वता में वृद्धि होनी चाहिए। ३५. प्रतिष्ठा पाकर हमारा उत्साह बढ़ता है ३५. प्रतिष्ठा पाकर हम ये मान लेते हैं कि और उससे व्यक्ति को सफलता मिलती हम बहुत बड़े हैं, इससे हम पुरुषार्थ करना छोड़ देते हैं और हमारा विकास रुक जाता है। ३६. कष्टों से व्यक्ति निर्बल होता है। ३६. कष्टों से व्यक्ति निखरता है। ३७. शरीर के समाप्त होने पर हम समाप्त हो ३७. शरीर के समाप्त होने पर ही हमारा जायेंगे। अस्तित्व बना रहेगा। ३८. मुक्ति के लिए कर्म छोड़ना आवश्यक ३८. मुक्ति के लिए कर्म छोड़ना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है-कर्म के प्रति जागरूकता। ३९. काल सीधी रेखा के रूप में चलता है। ३९. काल वर्तुलाकार चलता है। ४०. काल के प्रभाव से हम बूढ़े होते हैं और ४०. जरा और मृत्यु शरीर का धर्म है, आत्मा मरते हैं। का नहीं। समाज प्रचलित अवधारणा सम्यक् अवधारणा १. व्यक्ति परिस्थिति का निर्माण करता है १. व्यक्ति और परिस्थिति एक दूसरे का अथवा परिस्थिति व्यक्ति का निर्माण निर्माण करते हैं। करती है। २. परिस्थिति ठीक हो तो व्यक्ति अपने आप २. व्यक्ति के लिए साधना में से गुजरना सुधर जाएगा अथवा व्यक्ति ठीक हो तो और संस्थाओं के लिए ठीक व्यवस्था संस्थाएं अपने-आप सुधर जायेंगी। का निर्माण करना दोनों आवश्यक हैं। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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