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जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स॥
अर्थ- जिसके बिना लोक का भी व्यवहार सर्वथा नहीं सहा जा सकता है, ऐसे उस विश्व के एक अद्वितीय गुरु अनेकांतवाद के लिये नमस्कार है।
जैनाचार्यों ने अनेकांत को पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य 'पारमेश्वरी विद्या' 16 एवं विरोध का नाशक विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्" कहा है।
आचार्य सिद्धसेन तो इसे 'मिथ्यादर्शन के समूह का विघातक' भी कहते हैं। भई मिच्छादसण-समूहमहयस्स अमयसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स॥
अर्थ- एकांत मिथ्यादर्शनों के समूह का मथक अमृतसाररूप तथा तत्त्वज्ञ आचार्य मुनिजनों द्वारा सुखपूर्वक जाने गये ऐसे महत्त्वशाली तीर्थंकर सन्मति भगवान् के वचन से सुमुमुक्षु जगत् का कल्याण हो।
इस अनेकांतवाद का वाचिक परिचायक 'स्यात्' शब्द माना जाता है 'तस्यानेकान्तवादस्य लिंगं स्याच्छब्द उच्यते।
तदुक्तार्थेऽविनाभावे, लोकयात्रा न सिद्धयति ।।' अर्थात् उस अनेकांतवाद का लिंग (प्रधानचिह्न) 'स्यात्' शब्द है, जिसके कहे बिना लोक-व्यवहार भी नहीं चल सकता है अर्थात् सिद्ध नहीं हो सकता है।
___ संकीर्ण विचारधारा से लोक में काम कभी नहीं चला है । चिन्तन की उदारता (विशालता या व्यापकता) इसमें प्रतिपल अपेक्षित है अन्यथा 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व' जैसी आधुनिक सुन्दर विचारणायें कभी भी मूर्तरूप नहीं ले सकेंगीं। किसी भी संगठन या समवाय में अनेकविध व्यक्ति चाहिए अन्यथा उसका कार्य सुचारूरूप से नहीं चल सकेगा । यहाँ तक कि उसके विरोधी भी चाहिये। यदि वे नहीं हों, तो सावधानवृत्ति एवं विचारशुद्धि निश्चित रूप से बाधित होगी। विरोध करने वालों को नीतिविदों ने 'उपकारक' कहा है; क्योंकि यदि वे न हों, तो अनुयायी अहंकार की वृद्धि कर विचारों को कलुषित बना देते हैं। जैसे राख से मंजे बर्तन चमक उठते हैं; उसी प्रकार विरोधी विचारधारा भी वैचारिक सहिष्णुता एवं परिष्कार के लिए अनिवार्य है। कहा भी है
"निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय। जे साबू-पानी बिना, निर्मल करें सुभाय॥"
इसीलिये विवेकीजन 'विनोद' समझते हैं और उससे वे अपने चिन्तन एवं प्ररूपण में निरन्तर विकास, परिशोधन एवं अनुसंधान करते रहते हैं। अतः अनेकान्तात्मक चिन्तन मनुष्य के विचारों को व्यापक एवं सहिष्णु बनाता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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