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अर्थात् अनेक धर्मों से युक्त ही मानना चाहिए, क्योंकि वहां पर तो वस्तु उस ही रूप में सिद्ध है। तात्पर्य यह है कि यदि दो धर्मों में आत्यान्तिक विरोध नहीं है और वे सामान्य रूप से एक ही वस्तु में अपेक्षाभेद से पाये जाते हैं तो उन्हें स्वीकार करने में न्याय दर्शन को आपत्ति नहीं है।
इसी प्रकार जाति और व्यक्ति में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद मानकर जाति को भी सामान्य विशेषात्मक माना गया है। भाष्यकार वात्स्यायन लिखते हैं— यच्च केषांचिदभेदं कुतश्चिद् भेदं करोति तत्सामान्य विशेषो जातिरिति ।
यह सत्य है कि जाति सामान्य रूप भी है, किन्तु जब वह पदार्थों में कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद करती है तो वह जाति सामान्य-विशेषात्मक होती है। यहां जाति को, जो सामान्य की वाचक है, सामान्य विशेषात्मक मानकर अनेकांतवाद की पुष्टि की गई है। क्योंकि अनेकांतवाद व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि का अन्तर्भाव मानता है। व्यक्ति के बिना जाति की और जाति के बिना व्यक्ति की कोई सत्ता नहीं है। उनमें कथंचित् भेद और कथंचित अभेद है। सामान्य में विशेष और विशेष में सामान्य अपेक्षा भेद से निहित रहते हैं, यही तो अनेकांत है।
सत्ता सत्-असत् रूप है। यह बात भी न्याय दर्शन में कार्य कारण की व्याख्या के प्रसंग में प्रकारान्तर से स्वीकृत है । पूर्वपक्ष के रूप में यह कहा गया है कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य को न तो सत् कहा जा सकता है, न असत् ही कहा जा सकता है और न उभय रूप ही कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों में वैधर्म्य है (नासन्न सन्नसदसत् सदसतोर्वैधर्म्यात् ।)
इसका उत्तर टीका में विस्तार से दिया गया है । किन्तु हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में उनके उत्तर पक्ष को प्रस्तुत करेंगे। उनका कहना है कि कार्य उत्पत्ति पूर्व कारण रूप से सत् है? क्योंकि कारण के असत् होने से कोई उत्पत्ति ही नहीं होगी। पुनः कार्य रूप से वह असत् भी है, क्योंकि यदि सत् होता तो फिर उत्पत्ति का क्या अर्थ होता, अतः उत्पत्ति पूर्व कार्य कारण रूप से सत् और कार्य रूप से असत् होता है इस प्रकार कार्य उत्पत्ति, पूर्व सत्-असत् उभय रूप है, यह बात बुद्धि सिद्ध है । (विस्तृत विवेचना के लिए देखें न्यायसूत्र (4/1/4850) की वैदिकमुनि हरिप्रसाद स्वामी की टीका )
मीमांसा दर्शन और अनेकांतवाद
जिस प्रकार अनेकांतवाद के सम्पोषक जैन-धर्म में वस्तु को उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक माना है, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन में भी सत्ता को त्रयात्मक माना है। उसके अनुसार उत्पत्ति और विनाश तो धर्मों के है, धर्मी तो नित्य है । उन उत्पत्ति और विनाश के भी पूर्व है अर्थात् नित्य है। वस्तुतः जो बात जैनदर्शन में द्रव्य की नित्त्यता और पर्याय की अनित्यता की अपेक्षा से कही गई है, वही बात धर्मी और धर्म की अपेक्षा से मीमांसा दर्शन में कही गई है। यहां पर्याय के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वयं कुमारिल भट्ट” लिखते हैं—
| तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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