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बदलती है किन्तु स्वर्ण वही रहता है अर्थात् नहीं बदलता है, किन्तु अवस्था बदलती है। यही सत्ता का नित्यानित्यत्व या भेदाभेद है जो जैन दर्शन में अनेकांतवाद का आधार है। इस भेदाभेद को आचार्य वाचस्पति मिश्र इसी स्थल की टीका में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखते हैं— अनुभव एव ही धर्मिणो धर्मादिनां भेदाभेदो व्यवस्थापयन्ति।
मात्र इतना ही नहीं, वाचस्पति मिश्र तो स्पष्ट रूप से एकान्तवाद का निरसन करके अनेकांतवाद की स्थापना करते हैं। वे लिखते हैं
नौकान्तिकेऽभेदे धर्मादीनां धर्मिणो, धर्मोरूपवद् धर्मादित्वं नाप्यैकान्तिके भेदे गवाश्चवद्धर्मादित्वं स चानुभवोऽनेकान्तिकत्वमस्थापयन्नपि धर्मादिषपजनापाय धर्मकेष्वपि धर्मिणमेकमनुगमयन् धर्माश्च परस्रतो व्यवर्तयन् प्रत्यात्मनुभूतयत इति । एकान्त का निषेध और अनेकांत की पुष्टि का योगदर्शन में इससे बड़ा कोई और प्रमाण नहीं हो सकता है।
योग दर्शन भी जैन दर्शन के समान ही सत्ता को सामान्य विशेषात्मक मानता है योगसूत्र में कहा गया है
____ सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य । इसी बात को किञ्चित् शब्दभेद के साथ विभूतिपाद में भी कहा गया है- सामान्य विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम् | मात्र इतना ही नहीं, योगदर्शन में द्रव्य की नित्यता अनित्यता को उसी रूप में स्वीकार किया गया है जिस रुप में अनेकांत दर्शन में। महाभाष्य के पशपशाह्निक में प्रतिपादित है कि द्रव्यनित्यमाकृतिरनित्या, सुवर्ण कयाचिदाकृत्यायुक्तं पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रूचकाः क्रियन्ते, रूचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते...आकृतिरन्याचान्याभवति द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमृदेन द्रव्यमेवावशिष्यते।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सांख्य और योगदर्शन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं अनेकांत दृष्टि अनुस्यूत है। वैशेषिक दर्शन और अनेकांत
वैशेषिक दर्शन में जैन दर्शन के समान ही प्रारम्भ में तीन पदार्थ की कल्पना की गई, वे है द्रव्य, गुण और कर्म, जिन्हें हम जैन दर्शन के द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं । यद्यपि वैशेषिक दर्शन भेदवादीदृष्टि से इन्हें एक दूसरे से स्वतन्त्र मानता है, फिर भी उसे इनमें आश्रय-आश्रयीभाव तो स्वीकार करना ही पड़ता है। ज्ञातव्य है कि जहां आश्रय-आश्रयी भाव होता है, वहां उनमें कथंचित या सापेक्षिक सम्बन्ध तो मानना ही पड़ता है। उन्हें एक दूसरे से पूर्णतः निरपेक्ष या स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता है। चाहे वैशेषिक दर्शन उन्हें एक दूसरे से स्वतंत्र कहे, फिर वे असम्बद्ध नहीं है। अनुभूति के स्तर पर द्रव्य से पृथक् गुण और द्रव्य और गुण से पृथक कर्म नहीं होते हैं। यही उनका भेदाभेद है, अनेकांत है।
पुनः वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष नामक दो स्वतंत्र पदार्थ माने गये हैं। उनमें भी सामान्य के दो भेद किये- सामान्य और अपर सामान्य । पर सामान्य को ही सत्ता
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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