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सम्पादकीय
अनेकान्त की सार्थक प्रस्तुति
-मुमुक्षु शान्ता जैन
इक्कीसवीं सदी का यह पहला वर्ष हमारे लिए मील का पत्थर बन रहा है। क्योंकि इस वर्ष भगवान महावीर के 26सौवें जन्मकल्याणक महोत्सव को मनाने के बहाने एक बार फिर भगवान महावीर के जीवन-दर्शन, प्रवचन-पाथेय एवं सैद्धान्तिक अवधारणाओं को स्मृति पथ में लाकर नई रोशनी दी जा रही है। यह उत्सव महावीर के संदेश को पढ़ने, सुनने, जानने और समझने की एक सफल कोशिश है।
देश में अनेक आयोजनों, उत्सवों, संगोष्ठियों, सेमीनारों की ताजी, तूफानी खबरें मिल रही हैं। इस वर्ष को 'अहिंसा वर्ष' घोषित किया गया है। भगवान महावीर के चिन्तन को सब तक पहुंचाने का पुरुषार्थी प्रयत्न भी गतिशील है। इन सबका एक ही उद्देश्य हैमहावीर के द्वारा प्रस्थापित सिद्धान्तों को जीवन शैली में ढालें। शास्त्रों की गूढ़ गुत्थियों में सिमटे अनेकान्त के सूक्ष्म रहस्यों को जीवन की भूमिका पर समझें। जैनों का नेतृत्व अपने चरित्र की पहचान बनाए और धर्म के सारभूत तत्त्वों को सम्पूर्ण मानवता के कल्याणार्थ समर्पित किया जा सके।
भगवान महावीर व्यक्ति नहीं, एक विचार थे। उनके दर्शन, चिन्तन, कर्म और प्रयोगों ने जो परिणाम दिए, आज हर आदमी के लिए वे बुनियादी पत्थर बनें हैं। उन्होंने वीतरागता के शिखर पर खड़े होकर जो विचारक्रांति और आचारक्रांति का सिंहनाद किया उससे सदियों तक आदमी प्रकाश पाता रहेगा। जरूरत सिर्फ सत्यग्राही बनने की है।
महावीर अनेकान्त के प्रयोक्ता थे। उन्होंने सत्य को देखने के अनन्त दृष्टिकोण बतलाए । सत्य की व्याख्या में कहा गया- एक ही वस्तु में अनन्त विरोधी युगलों के धर्म होते है। जैसे नित्य-अनित्य, सदृश-विसदृश, सामान्य-विशेष | मनुष्य एक है पर नाम, रूप, बुद्धि, गुण, देश, काल, परिस्थिति के आधार पर उसमें अनेक पर्यायों का अस्तित्व है। विरोधी धर्मों का अस्तित्व स्वीकार कर मुख्य-गौण के आधार पर जीवन-शैली तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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