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________________ उसका निश्चय नहीं होगा । हेतुओं का प्रयोग होने पर भी उसके समर्थन में दृष्टान्त का कथन किये बिना अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती, केवल हेतु का कथन ही पर्याप्त नहीं है। 12 सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र के विचारों की सम्पुष्टि से एक विद्वान् ने कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जो अक्षरशः मान्य लगते हैं। (1) गृद्धपिच्छ ने प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त का शब्दविधया कथन भले ही न किया हो, पर अपने अभिप्रेत अर्थ को सिद्ध करने के लिए उनका अर्थतः निर्देश अवश्य किया है। (2) पूज्यपाद ने सूत्रकार के कथन का समर्थन न्यायसरणिका का अनुसरण करके किया है। अतः नामतः निर्देशन न होने पर भी सूत्रकार अवयव त्रय से परिचित थे । अतः व्याख्याकार या भाष्यकार अपने युग के विचारों के आलोक में प्राचीन तथ्यों के स्पष्टीकरण के साथ नवीन तथ्यों को प्रस्तुत करता है। . अतः प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त के स्पष्टीकरण को हम पूज्यपाद की विचारधारा नहीं मान सकते। पूज्यपाद ने गृद्धपिच्छ की मान्यता का ही स्फोटन कर उक्त अवयवत्रय की मान्यता को अंकित किया है। (3) गृद्धपिच्छ के अवयवत्रय के संकेत को पूज्यपाद ने तर्क का रूप दिया है। यही कारण है कि उन्होंने प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीन के औचित्य का समर्थन किया है। (4) जैन न्याय के अवयव - विचार का सूत्रपात संकेत रूप से तत्वार्थ सूत्र में मिल जाता है। अतएव अवयवों की मान्यता का मूल श्रेय जैन तर्कशास्त्र में आचार्य गृद्धपिच्छ को प्राप्त है । पूज्यपाद ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य (4/5 / 140 ) सूत्र के द्वारा समन्तभद्र का उल्लेख किया है, अतः वे समन्तभद्र से निश्चित ही पश्चाद्वर्ती 113 • समन्तभद्र ने भी गृद्धपिच्छ के समान उक्त अवयवत्र्य का नामतः उल्लेख किये बिना अनुमेय की सिद्धि प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त इन तीनों अवयवों से की है । आप्तमीमांसा प्रतिज्ञातु की प्रासंगिकता पर बल दिया गया है। उन्होंने हेतु और प्रतिज्ञा का प्रयोग एक तथ्य पर विचार करते हुए किया है, यथा-यदि माना जाय कि अनुमान से विज्ञप्ति (विशिष्ट जानकारी) की सिद्धि होती है तो अनुमान में भी साध्य और साधन की विज्ञप्ति को विज्ञान रूप मानने में दोष आते हैं। 14 अवयवों के स्वरूप और उनकी संख्या पर भाष्यकार वात्स्यायन ने सूत्रकार गौतम का अनुकरण क्रिया है। गौतमोक्त पंचावयवों के अतिरिक्त जिन अन्य पाँच अवयवों को भाष्यकार ने गिनाया है उनका स्वरूप निर्धारित करते हुए उन्होंने इन अवयवों की निरर्थकता को भी बताया है। वे पांच अवयव जिज्ञासा, संशय, शक्य प्राप्ति, प्रयोजन, संशयव्युदास आदि हैं। उनका स्वरूप विवेचन निम्न प्रकार है 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 110 www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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