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________________ सम्पादकीय हम द्विजन्मा बनें —मुमुक्षु डॉ. शान्ता जैन जैनधर्म सार्वभौमिक धर्म है। इसके सिद्धान्तों में मानवीय मूल्यों का योगक्षेम है। इसके आदर्शों में व्यवहार और निश्चय दोनों की पवित्रता का मूल्यांकन है। इसकी संस्कृति में सबका आत्मोदय जुड़ा है। इसकी परम्परा में प्रकृति, पदार्थ और प्राणी-सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति सचेतन संवेदना है। जैनधर्म किसी व्यक्ति, व्यवस्था, संगठन, संघ या सम्प्रदाय का नाम नहीं। यह अर्हतो द्वारा प्ररूपित राग- द्वेष मुक्त वीतरागता का राजमार्ग है। यह नाम, रूप, व्यक्ति, देश, काल, समय सभी सीमाओं से मुक्त आत्मधर्म है जहां आत्मसाक्षात्कार के सिवाय कोई साध्य नहीं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के सिवाय कोई साधन नहीं और भाव-विशुद्धता के सिवाय कोई साधना नहीं। भगवान ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक की सम्पूर्ण अर्हत परम्परा का यही उद्देश्य, आह्वान और उद्घोष रहा कि स्वयं को जानो, स्वयं को देखो। जैन-दर्शन आत्मकेन्द्रित दर्शन रहा, इसलिए इसका प्रचार-प्रसार भले ही विश्वव्यापी नहीं बन सका मगर सच्चाई यह है कि जिसने भी इसके गूढ़ सत्यों की अन्वेषणा की, अन्तर्प्रज्ञा से इसे समझा, यह अनुभव किया गया कि सत्य की तलाश में इस धर्म के पास अनेक प्रकाश स्तम्भ हैं जो व्यक्ति को सही दिशा दिखा सकते हैं। जैनधर्म का मौलिक तत्त्व है-'अप्पणा सच्च मेसेज्जा मेत्तिं भुएसु कप्पए' सत्य की खोज और मैत्री का विस्तार व्यष्टि और समष्टि दोनों से जुड़ा जीवन का शाश्वत, नियामक तत्त्व है। सत्य की खोज स्वयं से शुरू होती है“संपिक्खए अप्पगमप्पएणं" स्वयं द्वारा स्वयं को देखो। सत्य को सिवाय स्वयं तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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