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न्याय शास्त्र
भारतीय न्यायशास्त्र में
अवयव-विमर्श
-डॉ. प्रद्युम्नश्शाह
अवयव शब्द अव उपसर्ग पूर्वक 'यु' धातु से अच् प्रत्यय (अव+यु+अच्) के योग से बना है। अवयव का सामान्य अर्थ है अंग। वे अंग जिनके आधार पर वाणी द्वारा दूसरे को अनुमिति करायी जाती है, अवयव कहलाते हैं। अवयव का प्रयोग परार्थानुमान में होता है। अनुमान प्रमाण है उसके दो भाग हैं.-1. स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। अनुमाता जब साध्य का खुद ज्ञान करता है तो वह स्वार्थानुमान है और जब वह अपने ज्ञान का बोध दूसरे को कराता है तब उसे परार्थानुमान का सहारा लेना पड़ता है।
अनुमान को प्रमाण मानने वाले सभी न्यायविदों ने अवयवों की उपादेयता पर बल दिया है। अवयव कितने माने जाएँ और उनका क्रम क्या रहे, इस पर सबमें सहमति नहीं है। इसलिए आचार्यों की मान्यता में भेद दिखायी देता है। ऋषि वात्स्यायन अवयव को परिभाषित करते हुए कहते हैं-'सिद्ध करने योग्य साध्य धर्म विशिष्ट धर्मी अथवा धर्मी विशिष्ट साध्यधर्म अर्थ की जितने शब्दों के समुदाय से सिद्धि हो उस शब्द समूह को अवयव कहते हैं।'
न्यायसूत्र के अनुसार अवयव सातवाँ पदार्थ माना गया है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय, निगमन आदि उसके पाँच भेद है जिनका प्रयोग इस प्रकार है
1. शब्द प्रमाण का प्रतिज्ञा' में (पर्वत वह्निमान है) 2. अनुमान का हेतु* में (धूमवान होने से) 3. प्रत्यक्ष का उदाहरण में (जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग है जैसे रसोई घर में)
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] तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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