SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चेतना का विकास _ संसार में भ्रमण करने वाली आत्माएं राग-द्वेष से युक्त होती हैं। राग-द्वेष की प्रवृत्ति से चेतना मलिन होती है और संसार भ्रमण की परम्परा निर्बाध बनती है। हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री-संसर्ग आदि पापकारी प्रवृत्तियों से चेतना का पतन होता है और इन सपाप प्रवृत्तियों से विरत होने पर चेतना का विकास होता है। ये दो भिन्न दिशागामी रास्ते हैं, जिनमें विकास और पतन की कहानी छिपी हुई है। विपरीत दृष्टिकोण, असीम इच्छा, प्रमादपूर्ण जीवन शैली, आवेश पूर्ण जीवन-शैली तथा सपाप प्रवृत्तिमय जीवन से व्यक्ति दुःख व क्लेश की ओर अग्रसर होता है। इसके विपरीत व्यक्ति सम्यक् दृष्टिकोण, इच्छासंयम, जागरूक जीवन-शैली, आवेशमुक्त जीवन-शैली तथा निष्पाप प्रवृत्तिमय जीवन से सुख और शांति की ओर अग्रसर होता है। इन्द्रिय और मन के निग्रह का मार्ग सुख का मार्ग है और इन्द्रिय और मन को उच्छृखल छोड़ देना दुःख का मार्ग है। राग-द्वेष से मुक्त चेतना वीतराग चेतना कहलाती है, इस अवस्था में आत्मा के पाप कर्म का बंध सर्वथा रुक जाता है। वीतराग बनने के पश्चात् संपूर्ण ज्ञान और दर्शन प्रकट हो जाते हैं और आत्मा सर्वज्ञता को उपलब्ध हो जाती है। कालान्तर में सर्वज्ञ सिद्ध बनकर जन्म-मरण की इस सुदीर्घ परम्परा से मुक्त हो जाते हैं। आत्म-मुक्ति का चरम बिन्दु प्राप्त कर वे आत्म-सुख में लीन हो जाते हैं। यह आत्म-विकास की उत्कृष्ट परिणति है। अन्तहीन सुख-संप्राप्ति के लिये प्राणीमात्र के लिये यही लक्षित मंजिल है। सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र को पाने वाला अन्ततः इस विशुद्धतम चैतन्य अवस्था को पा लेता है। जीवन में अहिंसा, सत्य, प्रामाणिकता, पवित्रता, असंग्रह, संयम और तप की आराधना करने वाला इस आत्मविकास की दिशा में उन्मुख हो जाता है। आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, आत्मा को ही सुख-दुःख के लिये जिम्मेवार तथा बंधन-मुक्ति के लिये स्व पुरुषार्थ का स्वीकार आत्म विकास के नियामक घटक हैं। स्वयं को जानना ही जीवन की सफलता का मूल मंत्र है। पदार्थ जगत् को जान लेने से आत्म-विकास का पथ प्रशस्त नहीं हो जाता। आत्मानुभव के क्षण जीवन में जरूरी होते हैं। जब महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन से पूछा गया कि आप क्या बनना चाहते हैं ? आइंस्टीन ने कहा-मैं अगले जन्म में संत बनना चाहता हूं जिससे मैं आत्म तत्त्व को जान सकू। इस जीवन में मैंने पदार्थ जगत् को जानने का प्रयत्न किया, अब मेरा संकल्प है कि मैं जानने वाले को जान सकू। चेतना के आरोहण की प्रक्रिया ___ जैन दर्शन में आत्म-विकास की चौदह भूमिकाओं का विवेचन हैं, इन्हें गुणास्थान कहते हैं। ये आत्म-आरोहण के सोपान हैं। आरोहण का प्रथम बिन्दु है-सम्यक् दर्शन का विकास। जब तक आत्मा, कर्म-बंध, कर्म-फल, तपस्या और संयम का महत्व, मोक्ष की प्राप्ति, साधना और पुरूषार्थ-इन सभी विषयों में यथार्थ दृष्टिकोण नहीं बनता है, सम्यक् श्रद्धा पैदा नहीं होती है तब तक व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण की गिरफ्त से मुक्त नहीं बन पाता। सम्यक् दर्शन की संप्राप्ति को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में चरण-न्यास कह तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy