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________________ यहाँ पिशेल के सुझाव के अनुसार 'कर' के स्थान पाठान्तर ‘किर' उपयुक्त है। फिर ‘पडिपेक्खइ' और 'देक्खइ' दोनों क्रियाओं को कर्मवाच्य में मानते हुए निम्नलिखित रूप से पद्य का भाषान्तर किया जा सकता है-“मुग्धा अपने चन्द्रमुख की किरणों के कारण अंधेरे में भी दिख जाती है; फिर वह पूर्णचन्द्र की चाँदनी में दूर से क्यों नहीं दिखती?" व्यङ्ग्यार्थ है - क्योंकि वह चाँदनी में खो जाती है। (ग) सूत्र 365 उदाहरण - पद्य - क्रमाङ्क - 3 आयहो दहकलेवरहो, जं वाहिउ तं सारु। जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु॥ छाया अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं (=लब्धं) तत्सारम् । यदि आच्छाद्यते तत्कुत्थ्यति, यदि दहाते तत्क्षारः।। भाषान्तर "इस दग्ध देह से जो कुछ भी लब्ध हुआ वह सर्वोत्तम है, गाड़ने पर इससे दुर्गन्ध आती है और जलाने पर राख हो जाती है।" यहाँ, 'वाहिउ < वाहित < वाह-निर्वहन कराना, भार आदि ढोलवाना, किसी कार्य में लगाना', प्रसंगानुकूल है और, ‘लब्ध < लभ् =प्राप्त करना', से इसे प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है नहीं। इस अर्थ में इसका प्रयोग 'तवसंधि' पद्य क्रमाङ्क 20 में मिलता है। 'जिणि वाहिअवेआवच्चि देह', 'जिसने अपनी देह को सेवाकार्य में लगाया'। तदनुसार उपर्युक्त पद्य का सीधा अर्थ यह प्रतीत होता है __ "इस दग्ध देह से (जीवनकाल में) जो काम लिया, वही इसका सार है, (मरने पर) यदि गाड़ी गई तो यह महकती है और यदि जलाई गई तो राख हो जाती है।" (भाव यह कि मरणान्तर इसका कोई मूल्य नहीं रह जाता जैसा कि अजादि पशुओं का मांस, अस्थि, चर्म आदि के रूप में रह जाता है।) (घ) सूत्र 377 उदाहरण पद्य-क्रमाङ्क 1 मइँ जाणिउँ पिअ विरहिअहं कवि धर होइ विआलि । णवर मियंकु वि तह तवइ जिह दिणयरु खय-गालि ।। छाया मया ज्ञातं प्रिय विरहितानां कापि धरा भवति विकाले। केवलं (=परं) मृगाङ्कोऽपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले ॥ भाषान्तर “प्रिय! मैंने सोचा कि विरहियों को सन्ध्याकाल में कोई सहारा मिल जाता है; परन्तु दिन की समाप्ति पर चन्द्रमा भी (मुझे) वैसे ही तड़पा रहा है जैसे कि दिन में सूर्य।" यहाँ 'पिअ' और 'विरहिअहं' को यदि मिला दिया जाय और 'खय-गालि' का अर्थ 'प्रलयकाल में किया जाय तो पद्य का काव्यात्मक चमत्कार बढ़ जाता है ; अर्थ होगा 160mm - तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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