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________________ इसका उपाय यह है कि कषायों पर ध्यान न देकर उन मधुर-भावनाओं पर हम अपना ध्यान केन्द्रित करें जिनके कषाय प्रतिपक्षी हैं। वे मधुर-भावनाएँ क्या हैं? कहा गया है कि क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। अत: कहा जा सकता है कि कषाय उन सारे भावों को-प्रीति, विनय और मैत्री आदि को-जो द्वन्द्व निराकरण में सहयोगी हो सकते हैं-नष्ट कर देते हैं । कषायों पर विजय प्राप्त करना इसीलिए बहुत आवश्यक है। इन पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जाए। धर्मग्रन्थ कहता है कि हम क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से जीतें। तात्पर्य यह है कि यदि हम कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि उन भावनाओं को जागरूक होकर अपने में विकसित करें जो कषायों का हनन करती हैं। इस प्रसंग में यहाँ जैनदर्शन की तुलना योगदर्शन से की जा सकती है। जैनदर्शन के अनुसार कषायों पर-अर्थात् नकारात्मक आवेगों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें सृजनात्मक भावनाओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए। इस प्रकार यदि हम क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष जैसे चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे तो क्रमशः क्रोध, मान, माया और लोभ पर स्वतः विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके ठीक विपरीत योगदर्शन चारित्रिक गुणों के विकास के लिए उनकी प्रतिपक्ष भावनाओं पर ध्यान देने के लिए कहता है जो मनुष्य के लिए दुःख का कारण बनती है। यदि हम उन प्रतिपक्षी भावनाओं पर दु:ख के कारकों के रूप में ध्यान दें तो हम स्वतः चारित्रिक गुणों का विकास कर सकते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि चारित्रिक गुणों के विकास के लिए दोनों दर्शनों में भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ अपनाई गई हैं। जैनदर्शन जबकि एक स्वीकारात्मक दृष्टिकोण को अपना कर सृजनात्मक भावनाओं के विकास पर बल देता है ताकि कषायों का हनन किया जा सके, योगदर्शन प्रतिपक्षी भावनाओं पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है ताकि उनके दु:खद परिणामों को जानकर हम उनसे बच सकें और सद्गुणों का विकास कर सकें। इसलिए भाव-शुद्धि आवश्यक है, क्योंकि मान, माया, लोभ और क्रोध की उद्दाम भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति को न केवल प्रश्रय देती हैं बल्कि बद से बदतर भी बनाती है। स्वयं को इन कषायों से मुक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने में इनके विपरीत मधुर भावों को मार्दव; आर्जव, संतोष और क्षमा को विकसित करें। मार्दव का अर्थ है कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुप्त और शील का व्यक्ति तनिक भी गर्व न करे। अपने अभिमान में मनुष्य दूसरों को अपमानित करता है और द्वन्द्व-स्थिति में दूसरे पक्ष को अपमानित करना बड़ा आसान होता है। इससे बचने के लिए मार्दव का विकास होना चाहिए। आर्जव कुटिल 50 AIIMILINITITIVITIATI ANNAINITIATIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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