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इन यतियों की भावनाओं से ज्ञात हुआ कि अब पक्षपात का समय आ गया है। अतएव उन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि जिनका उल्लेख पहले किया गया है, इन नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये ताकि गणतन्त्रात्मक स्वरूप सुरक्षित रहे और अलग-अलग इकाइयों में रहकर भी सभी आचार-विचार और मर्यादाओं में समान रूप से संरक्षित होकर आत्मकल्याण में निर्विघ्न संलग्न रह सकें तथा एक स्थान की अपेक्षा देश के सभी क्षेत्रों में जा-जाकर नैतिकता आदि का प्रसार अधिकता से कर सकें।
इस प्रकार संघों के इस निवेदन से स्पष्ट है कि अनुशासन, आचार-विचार और संयम की निरन्तर प्रगति हेतु सभी संघ कुछ इकाइयों में अलग-अलग बँटकर भी विभिन्न क्षेत्रों में अनेक बाधाओं और कठिनाइयों के बावजूद जैनधर्म-दर्शन और उसकी संस्कृति तथा साहित्य की मूल परम्पराओं को सुरक्षित रखकर सम्पूर्ण भारत में अहिंसा, अनेकान्तवाद
और सर्वोदय की अलख जगाए हुए थे। परन्तु तीर्थंकर महावीर ने श्रमणसंघ को जो गणतन्त्रात्मक स्वरूप दिया था उसकी रक्षा करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर सुदृढ़ रहने की सभी को समान रूप से चिन्ता ही नहीं रही, फलतः किंचित् शिथिलाचार भी आया। किन्तु उसका खुलकर विरोध भी किया गया और यही कारण है कि आज भी सम्पूर्ण भारत में जैन श्रमण संघों के प्रति समान रूप से सभी की परम आस्था है। इस आस्था की रक्षा हेतु सभी संघ सचेष्ट भी रहते हैं। यही तो हैं श्रमण संघ की इस अविच्छिन्न और शाश्वत धारा में सदा वर्तमान बने रहने का राज और अपने देश की वर्तमान गणतन्त्रात्मक पद्धति की सफलता का राज भी श्रमण संघ का यही आदर्श है। सन्दर्भ ग्रन्थ :
1. रत्नत्रयोपेतः श्रमणगतः संघ:-सर्वार्थसिद्धि, 6/13, पृ. 331 2. श्रमयन्ति तपस्यन्ति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः-भगवतीआराधना, विजयोदयाटीका,
510, पृ. 730 3. मूलाचार, 5/66 4. नन्दिसूत्र स्थविरावली, 7-8 5. सर्वार्थसिद्धि, 9/24, पृ. 442, त. 2, श्लोक वा., 9/24, भावपाहुड-टीका, 78 6. आचारांगशीलांकवृत्ति, 2,1,10,279 पृ. 322 7. आ.भिक्षु स्मृति ग्रन्थ-द्वितीय खण्ड, पृ. 291 8. वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं।
विवाहे राग उत्पत्ति गणो दोसाणमागरो। मूलाचार, 10.92
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ANITANNIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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