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भाष्यकाल में स्थापना कुल भाष्यकार कहते हैं-यदि स्थापना कुलों को भी प्रयोजन होने पर ही जायेंगे, ऐसा सोचकर पूरा छोड़ दिया जाता है तो श्रावक लोग दान की परम्परा, एषणा की विधि आदि को ही भूल जाएंगे। उन्हें यह भी याद नहीं रहेगा कि साधु हमारे यहां गोचरी के लिए आएंगे। न कोई दर्शनश्रावक बनेगा और न व्रती श्रावक । ग्लान आदि के प्रायोग्य द्रव्यों का अभाव एवं तीर्थ की अप्रभावना होगी। सन्दर्भ वर्तमान का -
___ आज परिस्थितियां काफी बदल गई हैं। स्थापना कुलों के प्राचीन प्रकारों, उस प्रकार की स्थापना विधि आदि की परम्पराएं प्रायः कृतकृत्य हो चुकी हैं फिर भी स्थापना कुल सर्वथा नहीं होते। इस प्रकार की व्यवस्था का कोई महत्व नहीं-ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज भी गोचरी के घरों का विभाग करते समय कुछ ऐसे घरों का चयन एवं निर्धारण किया जाता है जहां प्रमुख रूप से आचार्य एवं शैक्ष साधु-साध्वियों की गोचरी की जाती है। तेरापंथ संघ में उन घरों का प्रचलित नाम है राज की गोचरी के घर । शरीर विज्ञान आदि की धारणा के परिवर्तन के साथ-साथ आज प्रायोग्य द्रव्यों की सूची भी प्रायः बदल गई है। अब घृत, मोदक, पूपलिका आदि का स्थान सूप, कम मसाले की (बिना मिर्च की) सब्जियों तथा पनीर आदि ले चुके हैं । ग्लान के लिए भी आज सोंठ, काली मिर्च अथवा हरड़ की अपेक्षा कम हो गई है। फिर भी प्राचीन स्थापना कुलों की परम्परा, इतिहास एवं उस समय की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन करने की प्रचुर सामग्री प्रदान करती है।
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सन्दर्भ सूची
दसवेआलियं १/४ अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा। २. निशीथ भाष्य गा १६१८ व उसकी चूर्णि ३. वही, गा. १६२३
निशीथ चूर्णि (सूत्र २२) पृ. २४३ ५. निशीथ भाष्य गा. १६१९-२०
वही, गा. १६२० की चूर्णि
(क) वही गा. १६२६ की चूर्णि (ख) बृहत्कल्पभाष्य गा. १५८३ की टीका ८. निशीथ भाष्य १६२७ की चूर्णि-ण सव्वसंघाडगा तेसु पविसंति। ९. बृहत्कल्पभाष्य गा. १५८२ की टीका
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000
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