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आचार्य नेमिचन्द्र एवं उनके टीकाकार जैन, मुनि महेन्द्रकुमार द्वितीय, मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल, परमेश्वर झा, आर.सी.गुप्ता, अनुपम जैन, दीपक जाधव आदि ने रेखांकित किया है या कर रहे हैं। त्रिलोकवैज्ञानिक : 'त्रिलोकसार' नेमिचन्द्र को सशक्त रूप से त्रिलोकवैज्ञानिक सिद्ध करता है। इस कृति में जैन भूगोल के साथ-साथ खगोल विज्ञान और गणित का व्यापक वर्णन है। शिक्षक : नेमिचन्द्र की शिक्षक के रूप में भी पहचान निर्धारित की जा सकती है।
यद्यपि उनके अनेक शिष्य होंगे तथापि चामुण्डराय प्रथम दृष्ट्या सामने आते हैं। चामुण्डराय के लिए उन्होंने गोम्मटसार एवं त्रिलोकसार की रचना की थी। गोम्मटसार की रचना का काल वही है जो नेमिचन्द्र द्वारा चामुण्डराय को जैन विद्या के शिक्षण का काल है। इस ग्रंथ की रचना कर स्वयं चामुण्डराय ने उस पर टीका बनानी प्रारंभ कर दी जो नेमिचन्द्र के समक्ष ही पूर्ण हुई।
ऐसा भी ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र विद्यदेव नेमिचन्द्र के प्रधान शिष्यों में से थे। यद्यपि नेमिचन्द्र के ग्रंथों के मूल लेखक स्वयं ही वही है तथापि उनके आज्ञानुसार कहींकहीं पर कोई गाथा माधवचन्द्र ने भी लिखी है। शिष्यों का ऐसा प्रतिभाशाली कृतित्व शिक्षक को आदर्श श्रेणी में रखने के लिए पर्याप्त है। नेमिचन्द्र को गणित-शिक्षण विधिविज्ञान का ज्ञान था, यह देखने के लिए हम अधोलिखित गाथा को देखते हैं
संखा तह पत्थारो, परियट्टण णट्ठ तह समुद्दिजें। एदे पंच पयारा, पमदसमुक्कित्तणे णेया॥ जी.का., 35 ।।
इस गाथा में नेमिचन्द्र ने संचय के पदों का क्रम संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट और उद्दिष्ट दिया है। हम विशेष रूप से अंतिम दो अर्थात् नष्ट (विश्लेषण) और उद्दिष्ट (संश्लेषण) का क्रम देखना चाहते हैं । इनको एक-दूसरे के स्थान पर भी लिखा जा सकता था। परन्तु नेमिचन्द्र ने ऐसा नहीं किया है। इसका कारण यह है कि शिक्षक से अपेक्षा की जाती है कि वह संश्लेषण के पूर्व विश्लेषण का शिक्षण करें ताकि अधिगम सृदृढ़ हों। 2.1 टीकाकार : श्रीमचामुण्डराय ।
गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी। सो राओ चिरकालं णामेण य वीरमतंडी ॥ जी.का., 972॥
स्वयं नेमिचन्द्र ने उक्त गाथा द्वारा उद्घाटित किया है कि चामुण्डराय ने गोम्मटसार पर देसी भाषा (कन्नड़) में टीका लिखी है। यह टीका वीरमार्तण्डी (वीरमार्तण्ड की) नाम से जानी जाती है। वीरमार्तण्ड नाम की उपाधि चामुण्डराय को गोनूर के युद्ध में नोलम्बो को पराजित करने पर मिली थी। पं. पन्नालालजी सोनी के मतानुसार इस टीका का अस्तित्व आज भी कन्नड़ प्रान्त में संभव है जो पंजिका स्वरूप है। यही टीका कर्नाटक वृत्ति कहलाती है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 AMITIONI TIATILITIVITITINY 47
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