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आचार्य नेमिचन्द्र एवं उनके टीकाकार
त्रिलोकसार पर माधवचन्द विद्यदेव की टीका की प्रस्तावना के अनुसार नेमिचन्द्र ने 'त्रिलोकसार' की रचना भी चामुण्डराय के अवबोध हेतु की थी। कृतियां : बाहुबलीचरित्त के कर्ता के अनुसार नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार, लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित) और त्रिलोकसार इन तीन ग्रंथों की रचना की है। इन तीनों की रचना मूल रूप से प्राकृत में की गई हैं। इनके संबंध में विद्वानों में लगभग कोई मतभेद नहीं है। गोम्मटसार : इस ग्रंथ के दो भाग हैं, पहला भाग जीवकाण्ड तथा दूसरा भाग कर्मकाण्ड कहलाता है। वर्तमान में इनमें क्रमश: 734 और 972 गाथाएँ प्राप्त होती हैं।
संसार में जीव और कर्म के संयोग से जो पर्याय आती हैं उनका विस्तार से वर्णन इस ग्रंथ में है। यह ग्रंथ बतलाता है कि मोक्ष प्राप्ति के क्या-क्या मार्ग और साधन हैं? इसकी प्राप्ति में आने वाली बाधाओं से कैसे सचेत हुआ जाए? लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित) : इसमें लब्धि के साथ क्षपणा के विवरण को भी सम्मिलित किया गया है। वर्तमान में इस ग्रंथ में कुल 649 गाथाएँ दिखाई देती हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति का कथन और फल का निर्देश इस ग्रंथ में किया गया है। त्रिलोकसार : इसमें जैन त्रिलोकविज्ञान का वर्णन है, जो कुल 1014 गाथाओं में समाहित हैं।
इनके अतिरिक्त जैन साहित्य में कुछ ग्रंथ ऐसे भी हैं जिनके रचनाकार होने का संकेत नेमिचन्द्र की ओर किया जाता है। उन ग्रंथों में द्रव्यसंग्रह, प्रतिष्ठापाथ, गोमटेसथुदि आदि हैं। परन्तु इस मत से असहमत होने वाले विद्वानों की संख्या अधिक है। द्रव्यसंग्रह : इसमें द्रव्यों का वर्णन हैं । इस पर ब्रह्मदेव ने टीका लिखी है जिसमें उन्होंने लिखा है कि इस ग्रंथ के रचनाकार आश्रम नामक स्थान पर रुके थे। यह स्थान धार के राजाभोज के मालवा क्षेत्र के अधीन था। नेमिचन्द्र की उपस्थिति राजाभोज (विक्रम की 11 वीं शताब्दी) के काल में होना उनके काल को प्रभावित करती है।
दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं. ॥ द्र.स., 58 ।।
द्रव्यसंग्रह की इस अंतिम गाथा में रचनाकार ने अपना नाम तनुसूत्रधर मुनि नेमिचन्द्र बतलाया है जबकि हमारे नेमिचन्द्र के साथ सिद्धान्तचक्रवर्ती लिखा जाता है।
शरच्चन्द्र घोषाल, जे.एल.जैनी, लक्ष्मीकान्त जैन आदि इस मत के हैं कि इस ग्रंथ के रचनाकार सिद्धान्तचक्रवर्ती (नेमिचन्द्र) है जबकि बाबू जुगलकिशोर, दरबारीलाल कोठिया, चेतनप्रकाश पाटनी आदि इस मत से असहमत हैं। प्रतिष्ठापाथ : इसमें प्रतिमाओं की स्थापना और पवित्रीकरण संस्कार के संबंध में दिशाज्ञान दिया है। मूल ग्रंथ की रचना इन्द्रनन्दि ने की है। नेमिचन्द्र ने उसी नाम से अनुकरण प्रति की तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 LALLANNINNITIALALIV 45
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