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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 और एक गमन । अपनी जाति में जो परिवर्तन होता है वह है परिणमन । पानी में तरंग उठी, स्वजातिगत परिवर्तन है । यह परिणाम है। पानी की बर्फ बना ली, यह गमनीय हो गया। यह जात्यंतर हो गया, अर्थान्तर हो गया। पहले पानी था, अब बर्फ बन गया। यह सारा परिवर्तन जात्यंतर होता है। एक गाय घास खाती है और वही घास दूध में बदल जाती है। जात्यंतर हो गया। हम भोजन करते हैं भोजन रक्त, रस और मांस में बदल जाता है, यह जात्यंतर परिवर्तन होता है। यह जात्यंतर परिवर्तन और स्वाजातिगत परिवर्तन का क्रम निरन्तर चलता रहता है। कृत और अकृत पारिणामिक भाव को समझे बिना विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकती और वास्तविकता या सत् की व्याख्या भी नहीं की जा सकती। एक स्थूल दृष्टि में तो हमें दिखाई देता है कि यह परिणमन हो रहा है, बदल रहा है और एक इतना सूक्ष्म परिणमन है। जो हमारी आँखों का विषय नहीं बनता पर वास्तव में हो रहा है। उस परिणमन की व्याख्या में दो प्रकार बतला दिये गये - सादि पारिणामिक भाव और अनादि पारिणामिक भाव । पाँच द्रव्य हैं, पाँच अस्तिकाय हैं । वे अनादि पारिणामिक भाव हैं। इनका कोई आदि बिन्दु नहीं है। कि कब से हुआ? अनादि परिणमन है- निरन्तर परिणमन होता रहता है । उनमें स्थिरता नहीं है, जड़ता नहीं है । निरन्तर गतिशीलता है। जितना भी अस्तित्व है, गतिशील है । निरन्तर गति करता रहता है और एक नियम इस आधार पर भी बन सकता है जिसमें गतिशीलता नहीं है उसका अस्तित्व भी नहीं है। जिसका अस्तित्व है उमसें गतिशीलता है। अस्तित्व और गतिशीलता दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। वह गतिशीलता चाहे परिस्पन्दात्मक हो या अपरिस्पन्दात्मक किन्तु उसमें गति निश्चित होगी। जो हमें दिखाई दे रहा है, वह सारा सादिपारिणामिकभाव है। आज एक वस्तु बनी और कुछ समय के बाद वस्तु नष्ट हो जाती है। कपड़ा बना और कुछ समय बाद कपड़ा फट गया। मकान बना, कुछ समय बाद मकान भी नष्ट हो गया । यह सारा सादि परिणमन है । बादल बनते हैं, यह भी सादि परिणमन है। आकाश में मंडराये और कुछ समय बाद साफ हो गये। अनादि परिणमन के बिन्दु पर आकर ही ईश्वर के बिन्दु की चर्चा शुरू हो जाती है। यह संसार अनादि है या सादि है? सादि है तब तो उसका कोई कर्त्ता होना चाहिए। चाहे मनुष्य हो चाहे कोई शक्ति हो, चाहे कोई पुदगल काही संयोग हो। कोई न कोई कर्ता अवश्य होगा। जो अनादि है वहां कर्त्ता नहीं हो सकता। कर्त्ता की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि उसमें एक प्रश्न की शृंखला, तर्कशास्त्र में जिसको कहते हैं, अनवस्था आ जाती है कि अनादि का कोई कर्त्ता है तो उसका कर्त्ता कौन है ? अस्तित्व सारे अनादि हैं, अकृत हैं, किसी के द्वारा कृत नहीं हैं। कोई उसका कर्त्ता नहीं है । ईश्वरवादी मानते हैं कि यह विश्व है। ईश्वर के द्वारा कृत है । सूत्रकृतांग सूत्र में एक वचन भी आता है - ईसरेण कड़े लोए - ईश्वर के द्वारा कृत है । दूसरा विचार यह आया कि यह संसार
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IIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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