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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 किसी की कोई आवश्यकता नहीं। विकल्प दिया कि जब वे न हों तो उस स्थिति में क्या करें? किसको प्रमाण मानें? तब निर्णय मिला कि आहत पुरुष ने जो कहा उसकी वाणी को प्रमाण मानें। ____ हमारे सामने प्रमाण के दो बिन्दु बन गये। एक आगम पुरुष और दूसरा आगम पुरुष की अनुपस्थिति में शास्त्र/ग्रन्थ। अभी आगम पुरुष नहीं हैं। बहुत स्पष्ट है कि हमारे सामने शास्त्र, ग्रन्थ हैं। शास्त्र और ग्रन्थ की भी अपनी समस्या है। कहने वाले ने कहा, समझने वाला समझ रहा है, व्याख्या करने वाला व्याख्या कर रहा है। पाठक के सामने आगम की वाणी नहीं आती, उसकी व्याख्या आती है, अर्थ आता है। समस्या यह है कि एक ही सूत्र के, एक ही पाठ के अगर पांच व्याख्याकार हैं तो व्याख्याएं भिन्न-भिन्न होंगी। वक्ता ने क्या कहा, वहां तक पहुँचने के लिए हमारे पास साधन कहाँ रहा। वक्ता ने, आप्त पुरुष ने देश, काल, परिस्थिति सापेक्ष जो बात कही, जिस सत्य का प्रतिपादन किया, पढ़ने वाला, अर्थ करने वाला, जिसके सामने वह देश नहीं है, वह काल नहीं है, वह परिस्थिति भी नहीं है और वह सारा वातावरण भी नहीं है तब वह मूल बात को कैसे पकड़ पाये? समस्या है। इसीलिए एक आगम के अनेक अर्थ हो गये। उसी आगम के आधार पर मूर्ति पूजा का समर्थन किया जा रहा है और उसी आगम के आधार पर मूर्ति पूजा को अस्वीकार किया जा रहा है। एक ही गीता के आधार पर द्वैतवाद भी चल रहा है और अद्वैतवाद भी चल रहा है। अब कहने वाला क्या कहना चाहता था, उस बात को पकड़ना मुश्किल है। मैं इसे इस भाषा में सोचता हूं कि महावीर ने जो कहा, उसको हम मानते हैं । इसकी अपेक्षा यह कहना ज्यादा अच्छा है कि व्याख्याकारों ने जो कहा उसको हम मानकर चलें। लोग व्याख्याकार का भी चुनाव करते हैं। जो व्याख्याकार मुझे पसन्द है, उसको मानकर मैं समझ जाता हूं। यह शब्द की शक्ति नहीं कि वह बता सके कि मुझमें क्या अर्थ छिपा होगा। शब्द नहीं बोलता है, अपने आशय को प्रकट करता है। आशय पाठक पकड़ता है। पाठक की अपनी मति, अपना ज्ञान, अपनी सीमाएं होती हैं। जिस सीमा में है उसी सीमा में उसको पकड़ता है, इसलिए आगम को, वाणी को हम प्रमाण मानते हैं । यह औपचारिक बात ठीक है पर इससे ज्यादा सचाई यह है कि जिस व्याख्याकार ने व्याख्या की, उसकी बात को हम प्रमाण मानते हैं । इस स्वीकृति से एक और समस्या पैदा हो गई। अर्थ की परम्परा भी लुप्त हो गई। ___आगम के दो प्रकार होते हैं-सूत्रागम और अर्थागम। एक सूत्रपाठ और एक उसका अर्थ। सूत्रपाठ कितना बचा है, यह नहीं कहा जा सकता पर जो अवशेष है वह है किन्तु अर्थागम की परम्परा बिल्कुल लुप्त हो गई है। सचाई यह है कि अर्थागम के बिना सूत्रागम को समझना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। प्रमाण तो अर्थागम है। सुश्रुतकार ने बहुत सुन्दर 14 ANTILITTITTWITTIWWWWWWWWWWWWWW तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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