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परसे रूप पारस सौ कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्मरी ।
इह विधि साधो आप " आनन्दघन" चेतनमय निष्कर्म री ॥ टेक ॥। श्रीमद् देवचन्द्र जी ने चतुर्विंशति जिनस्तवन में पार्श्वनाथ को ज्ञानादि गुणों के सागर तथा केवलज्ञान रूप हीरे का जनक कहते हुये स्तवन किया है
सहज गुण आगरी स्वामी सुखसागरो, ज्ञान वैयरागर प्रभु सवायो । शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीति जयपड हवायो || भक्तों की दृष्टि में पार्श्व प्रभु की महिमा अपरम्पार है । उनके दर्शन मात्र सभी प्रकार के पातक छिन भर में दूर हो जाते हैं । वे भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं । इसलिए कविराय घानतराय जी ने पार्श्व प्रभु की स्तुति करते हुए लिखा है— हमको प्रभु श्रीपास सहाय
जावो दर्शन देखत जब ही, पातक जाय पलाय ॥ हमको |
जावो इन्द्र फर्निद चक्रधर, बंदे सीस नवाय ।
सोई स्वामी अंतरजामी, भव्यनि को सुखदाय ॥ हमको ||
" घानत" अवसर बीत जायगो, फेर कछु न उपाय || सोई स्वामी अंतरजामी भव्यनि को सुखदाय || हमको ||
इसी तरह राजस्थानी में 'पार्श्वनाथ जिनस्तवन' नामक दर्शन स्तुति कवि "गुणसागर " द्वारा रचित है। इसमें कवि ने पार्श्वनाथ भगवान को संकट एवं पाप निवारण कर्ता के रूप में प्ररूपित करते हुए उनके गुणगान करते रहने की कामना की है -
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जाके चार घातिया बीते, दोष जुगये विलाय ।
सहित अनन्त चतुष्टय साहिब, महिमा कहीं न जाय ।। हमको || ताकी या वड़ो मित्यो है, हमको, गहि रहिये मन लाय ।
पास जी हो पास दरसण की बलि जाइये, पास मनरंगे गुण गाइये ।
पास बाट घाट उद्यान में, पास नागै संकट उपसम
पास मनरंगे गुण गाइये ।
उपसमै संकट विकट कष्टक, दुरित पाप निवारणो
आनंद रंग विनोद वारू, अर्ष संपति कारणो ॥ पा० ॥
जैन कवि आराधना, भक्ति करते समय पार्श्वप्रभु के गुणों की स्तुति करते हुये, संसार के भोगों की कामना करके निज पद ( आत्मा ) की पहिचान करने तथा मोक्षमार्ग पर जाने के लिए प्रेरणा चाहते हुये लिखते हैं
१. पार्श्व प्रभु तुम्हें पुकारूं मैं ।
ऐसी मति दो एक बार निज, स्वपद निखारूं मैं........।। भव समुद्र दल-दल से निकरूं रूप निखारूं मैं । जर्जर तरणी डगमग डोले, पार उतारूं मैं ॥ कर्मशत्रु शिवसुख के दाता, इन्हें पुकारूं मैं । सिद्धशिला पर पास तुम्हारे नाथ पधारूं मैं ।।
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तुलसी प्रशा
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