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________________ आचार्य कुन्दकुन्द को कृतियों में 'आत्मा' . आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश' आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर-परम्परा के आचार्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दिगम्बर जैन परम्परा के मंगलाचरण में उनका स्थान गौतम गणधर के तत्काल बाद आना उनकी महत्ता की स्वीकृति है।' आगमिक पदार्थों की दार्शनिक दृष्टि से ताकिक चर्चा उन्होंने शुरू की~-ऐसा उपलब्ध साहित्य सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है। उन्होंने आगमिक जैन तत्त्वों को तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओं के प्रकाश में स्पष्ट किया और अन्य दर्शनों के मन्तव्यों का यत्र-तत्र निरसन करके जैन मन्तव्यों की विशेषता और उपादेयता सिद्ध की। जिससे श्रद्धा और बुद्धि दोनों को पर्याप्त मात्रा में परिपोषण मिला। जैन आगमों में निश्चयनय प्रसिद्ध था तथा निक्षेपों में भाव निक्षेप भी विद्यमान था । भाव निक्षेप की प्रधानता से निश्चय का आश्रय लेकर जैन तत्त्वों के निरूपण द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन को तत्कालीन दार्शनिकों के समक्ष एक नये रूप में उपस्थित किया । निश्चय और भाव निक्षेप की प्रमुखता का आश्रय लेने पर द्रव्य और पर्याय, द्रव्य और गुण, धर्म और धर्मी, अवयव और अवयवी इत्यादि का भेद मिटाकर अभेद स्थापित किया। उनके ग्रंथों में निश्चयनय का प्रधानता से उल्लेख है और नैश्चायिक आत्मा के वर्णन में वेदान्त ब्रह्मवाद के निकट जैन आत्मवाद पहुंच गया कुन्दकुन्दाचार्य अध्यात्म के पुरस्कर्ता हैं। उनकी कृतियों में अध्यात्म परिलक्षित होता है। पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार एवं नियमसार उनकी दार्शनिक कृतियां हैं । डॉ० सुषमा गांग ने अपने शोधग्रन्थ 'कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि' में इन ग्रंथों की विवेचना करते हुए कहा है कि समयसार द्रव्यदृष्टि प्रधान है, प्रवचनसार पर्यायदृष्टि प्रधान, पंचास्तिकाय प्रमाणदृष्टि प्रधान तथा नियमसार साधक दष्टि प्रधान है।' समयसार रचना के माध्यम से कुन्दकुन्दाचार्य ने आ मवाद का जो निरूपण किया है वह समस्त जन वाङ्मय में अनुपम है । इसी कारण अध्यात्म प्रेमी जैन सांप्रदायिक भेदभाव को छोड़कर समयसार के अध्यात्म रस का पान करते हैं। आत्मतत्व जैन दर्शन में आत्मा का विवेचन तत्त्व विचार के रूप में आरम्भ होता है। जैन दर्शन में सात तत्त्व माने गये हैं, जिसमें प्रथम जीव या आत्मा है तथा अजीव सहित छः अन्य तत्त्व हैं । उन सभी का महत्व जीव के कारण है । ये सात तत्त्व इस प्रकार हैं।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । कुछ परम्पराओं में पापतुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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