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________________ भारतीय लोकजीवन का मांगलिक प्रतीक थापा या पञ्चाङ गुलांक ए. एल. श्रीवास्तव मांगलिकता भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग रही है और आज भी है। गांव-कस्बों से लेकर नगर-महानगरों तक फैले जन-जन में मांगलिक भावना भरी हुई है । सुख, सम्पन्नता, सन्तान, सौंदर्य और सौभाग्य की आकांक्षाओं से कौन अछूता है ? कल्याणी मांगलिक भावना हमारे मन में भीतर तक व्याप्त हो गई है। इसीलिए जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हमारे जीवन में जब-जब हर्ष और उल्लास के क्षण आते हैं, हमारी मांगलिक भावनाएं उजागर हो उठती हैं । इनसे हमारे मन पवित्र हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे मन्दिर में देव-प्रतिमा के समक्ष जाने पर हमारे मन के कलुष दूर हो जाते हैं और मन सात्त्विक तथा पवित्र भावों से भर जाता है। मांगलिकता को भारतीय जनमानस ने भांति-भांति के स्वरूपों में अभिकल्पित किया है। इन्हीं स्वरूपों को मांगलिक चिह्न अथवा मांगलिक प्रतीक कहा जाता है। मन के भावों को प्रकट करने में जब वाणी असमर्थ होती है या शब्द गूंगे हो जाते हैं तब प्रतीक ही सहायक बनता है । हमारा साहित्य, कला, धर्म, दर्शन और लोकजीवन इन प्रतीकों से भरे पड़े हैं । इन प्रतीकों से हमारे विचार, आदर्श, आध्यात्मिकता आदि सहज रूप से अभिव्यक्ति पाते हैं। भारतीय कला और लोककला में अनेक मांगलिक चिह्न या प्रतीक लोकप्रिय रहे हैं जैसे स्वस्तिक, श्रीवत्स, मीन-मिथुन, कलश, पद्म, माला, नन्दयावर्त आदि । इसके अतिरिक्त घर-परिवार में काम आने वाले सभी उपकरण जैसे चक्की-चूल्हा, गालीमूसल, सिल-बट्टा, चांद-सूरज, गाय-बैल, तोता-मोर आदि महिलाओं की अभिरुचि और जीवन-जगत के प्रति उनकी निकटता का संकेत भी देते हैं। महिलाओं द्वारा बनाई गई अल्पनाओं में इन्हीं मांगलिक प्रतीकों का लोकरंजक स्वरूप प्रकट होता है । इनमें उनकी सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक मनोवृतियां प्रकट होती हैं। ये अल्पनाएं और उनमें प्रयुक्त ये मांगलिक प्रतीक उनके लोकाचार को प्रतिबिम्बित करते हैं । इन्हीं से लोक-विश्वास जीवित रहते हैं । ध्यान दें, अल्पना बनाने को चौक पूरना कहा जाता है । यह 'पूरना' पूर्णत्व की मांगलिक भावना ही है।। ____ भारतीय लोकजीवन का एक ऐसा ही सशक्त मांगलिक चिह्न है 'थापा' यानी हाथ की पांचों उंगलियों का निशान । प्राचीन भारतीय साहित्य में इसे 'पंचाङ गुलांक, कहा गया है । यह 'थापा', 'थपिया' अथवा 'पञ्चाङ गुलांक' प्रायः चावल की पीठी तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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