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आगे चलकर भगवान् बुद्ध आनंद के तर्क और अनुरोध की अवमानना नहीं कर सके और खिन्न मन से उन्होंने प्रवज्याकांक्षिणी नारियों को भी संघ में सम्मिलित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। चुल्लवग्ग के अनुसार बुद्ध ने दुखित मन से आनन्द को कहा था कि अगर स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया जाता तो यह धर्म चिरस्थायी होता अब केवल पांच सौ वर्षों तक ही स्थिर रह सकेगा।
स्त्री की संघ में उपस्थिति पुरुष की आध्यात्मिक साधना में बाधक बनकर उपस्थित हुयी । भिक्षु संघ के उच्च आदर्श च्युत होते गये । ब्राह्मण धर्म में व्यक्ति तब सन्यास ग्रहण करता जब यौवन का अवसान होने पर उसकी वासनायें समाप्त हो जातीं। इधर बौद्ध धर्म में व्यक्ति १५ वर्ष की अपरिपक्व वय में ही श्रमणेर बन जाता था अत: नारी के सान्निध्य से उसके पतन की संभावनायें निरन्तर बनी रहती थीं। एक नियम बना दिया कि अगर कोई श्रमणेर किसी भिक्षणी से सहवास करेगा तो उसे संघ से निष्कासित कर दिया जावेगा।
बौद्ध धर्म के प्रारंभिक काल में प्रवज्या की ओर लोक रुचि में अकथनीय रूप से वृद्धि हो चली थी। स्त्रियां अपेक्षाकृत अधिक धर्मभीरु होती हैं । स्त्री परिवाजिकाओं में वृद्धा स्त्रियां, विधवायें धर्म शरणागत होने लगीं। थेरी गाथा में गौतमी, सुन्दरी, इसिदासी, सोणा और शाक्यकुमारियों के वृत्त प्राप्त होते हैं। अपने पुत्र, पति, माता पिता को छोड़कर पटाचारा भगवान बुद्ध की शरण में गयी। अनेकानेक नवयुवक अपनी युवापत्नियों को त्यागकर भिक्षु बन गये तो उनकी पत्नियां भी संघ की शरण में चली गयीं। ऐसी भिक्षुणियों में चापा का नाम आता है । भद्दा नामक राजगृह की एक श्रेष्ठि कन्या एक दस्यु पर प्रेमासक्त हो गयी पर असफल होने पर भिक्षुणी बन गयी। ___कभी स्त्रियां जब संघ की शरण जाती तो वे गर्भवती होतीं और उन्हें इसकी जानकारी नहीं होती। आगे चलकर इससे बड़ी जटिल समस्या उत्पन्न होती। ऐसे शिशु का भार सद् गृहस्थ उठा लेते और माता को संघ में बने रहने दिया जाता। विनय पिटक (पृ. १२५) में कुन्तक नामक श्रमणेर द्वारा एक भिक्षुणी के साथ व्यभिचार किये जाने का उल्लेख किया गया है। ___बौद्ध युग में जैसा पूर्व में कहा गया है भिक्षुणियों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुयी । इस प्रकार जैन धर्म में भी साधिकाओं की संख्या निरन्तर बढ़ती गयी । इस प्रथा के कारण दोनों धर्मों की धर्म साधनाओं में ह्रास का सूत्रपात हुआ। वस्तुतः धर्म के कठोर अनुशासन के अनुरूप जीवन को ढालने और कठोर साधनाओं का मार्ग अपनाने में स्त्री जाति कभी पुरुष वर्ग से पीछे नहीं रहीं। मन की शुद्धि व्यक्ति के मन पर आश्रित है अतः लिंग, वय एवं जाति इस सम्बन्ध में विचारणीय नहीं रह जाती।.
-डॉ. रतनलाल मिश्र ४४।६२ किरणपथ, मानसरोवर
जयपुर पिन ३०२०२०
बंर २३,बंक ४
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