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________________ लिए इसे शून्यवाद भी कहते हैं । त्रिरत्न बुद्ध दर्शन में तीन साधन हैं-शील, समाधि तथा प्रज्ञा । इन्हीं को त्रिरत्न कहा जाता है। (क) शील से समस्त सात्त्विक कर्मों का तात्पर्य है। भिक्ष तथा गृहस्थ दोनों के लिये कतिपय साधारण शील हैं, जिनका पालन करना प्रत्येक बौद्ध का कर्तव्य है । अहिंसा, अस्तेय, सत्य, भाषण, ब्रह्मचर्य और नशा सेवन न करना-ये पंचशील कहे जाते हैं। . किंतु भिक्षुओं के लिये अन्य पांच शीलों (दस शीलों) का भी उपदेश है। अपराह्न भोजन, माला धारण, संगीत सुवर्ण-रजत तथा महार्थ शय्या का त्याग । (ख) समाधि से तीन प्रकार की बिज्जायें उत्पन्न होती हैं-पूर्व जन्म की स्मृति, जीव की उत्पत्ति और विनाश का ज्ञान तथा चित्त के बाधक विषयों की जानकारी । (ग) प्रज्ञा तीन प्रकार की है श्रुतमयी आप्त प्रमाण जन्य निश्चय । चिन्तामयी युक्ति से उत्पन्न निश्चय भावनामयी-समाधि जन्य निश्चय । शील सम्पन्न, श्रुतचित्त-प्रज्ञा से युक्त पुरुष भावना (ध्यान) का अधिकारी है । प्रज्ञा के अनुष्ठान से ज्ञान दर्शन, मनोमय शरीर का निर्माण, ऋद्धियां, दिव्य क्षोत्र, पर चित्तज्ञान, पूर्व जन्म स्मरण, दिव्य चक्षु की उपलब्धि होती है, इससे दुःख क्षय का ज्ञान हो जाता है । साधक निर्वाण प्राप्त कर लेता है । बुद्ध की शिक्षाओं का सारांश शील, समाधि तथा प्रज्ञा इन तीन शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता समाधि की आवश्यकता स्वानुभूति के द्वारा ही पारमार्थिक सत्य का ज्ञान हो सकता है। इसके लिए शमय अर्थात् चित्त की एकाग्रमा-रूप समाधि की आवश्यकता है। इस समाधि के अभ्यास से प्रज्ञा का उदय होता है और उसी से उसे परम तत्त्व की अनुभूति होती है । समाधि के लिए वैराग्य अपेक्षित है । दान, शील, शांति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा इन छः पारमिताओं का ज्ञान तथा अभ्यास करना चाहिए। बुद्धत्व प्राप्त करने का आदर्श प्राचीन समय में भी था । किंतु जनता के लिए बुद्ध होना संभव नहीं था। परंतु अर्हत्-पद से ऊपर उठकर निर्वाण लाभ करना अर्थात् दुःख से मुक्त होना सभी का लक्ष्त था। जब अपना दुःख और दूसरे का दुःख समान प्रतीत होता है और अपनी सत्ता का बोध विश्वव्यापी हो जाता है, जब समस्त विश्व में अपनत्व आ जाता है, उस समय सबकी दुःख निवृत्ति, अपने दुःख की निवृत्ति में परिणत हो जाती है । वासना मुक्त होने मात्र से निर्वाण प्राप्त नहीं होता है । साधक को बोधिसत्व अवस्था में होकर क्रमश: उच्चतर भूमियों में प्रसार करने से महानिर्वाण प्राप्त होता है । साधक तथा योगी के जीवन में गुणों के साथ करुणा का विकास भी इतना ही आवश्यक है । जगत् के सभी धर्मों में करुणा का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया । बौद्ध योगियों के आध्यात्मिक जीवन में करुणा का महत्वपूर्ण स्थान है, अनंगव्रज कहते हैं कि करुणावान् कभी भी किसी को निराश नहीं करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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