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१. अविद्या २. संखार (प्रवृत्ति) ३. विन्नय (बोध) ४. नाम (रूप) ५. छः । इंद्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां और मन) ६. संपर्क (विषयों का उपलब्ध ज्ञान) ७. वेदना (अनुभूति) ८. तृष्णा ९. उपादान (ग्रहण, प्राप्ति, पकड़ना) १०. भव (प्रकट होना) ११. जन्म १२. दुःख (जरा, रोग, मृत्यु) ।
___ कार्य-कारण नियम को नैतिक क्षेत्र में भी स्वीकार किया गया है । जो कुछ व्यक्ति करता है, उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है । कर्म वास्तव में पूरा ही उस समय होता है, जब उसका फल व्यक्त हो जाय । बुद्ध यही कहते थे कि बुद्धों का काम मार्ग प्रदर्शन है. मार्ग पर चलना तो पथिक का काम है। इसका अर्थ यह है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे को न क्षमा दे सकता है, न दिला सकता है । उसको अपने कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है उसके और कोई विकल्प नहीं है । धर्म का स्वरूप
बौद्ध दर्शन में धर्म शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक है । भूत और चित्त के उन सूक्ष्म तत्वों को धर्म कहते हैं जिसके आघात तथा प्रतिघात से समस्त जगत् की स्थिति होती है अर्थात् यह जगत् धर्मों का एक विशिष्ट संघात है। सभी स्वतन्त्र हैं, ये सभी क्षणिक हैं, प्रत्येक क्षण में बदलते रहते हैं। कहा जाता है कि सर्वास्तिवाद में धर्मों की संख्या पचहत्तर है। मन आयतन को छोड़कर प्रथम ग्यारह आयतनों में प्रत्येक में एकएक धर्म है और मन आयतन में चौसठ धर्म है, इसलिए मन आयतन को धर्मायतन कहते हैं। जगत का विषयगत विभाग
विषयगत-ष्टि से जगत के धर्म दो भागों में विभक्त किये जाते हैंअसंस्कृत धर्म तथा संस्कृत धर्म । बौद्ध दर्शन में संस्कृत तथा असंस्कृत शब्दों का अर्थ विशिष्ट रूप से किया जाता है । असंस्कृत शब्द का अर्थ है-नित्य, स्थायी, शुद्ध तथा किसी हेतु या कारण की सहायता से जो उत्पन्न न हो । असंस्कृत धर्म किसी वस्तु की उत्पत्ति के लिए संघटित नहीं होते । इसके विपरीत संस्कृत धर्म होते हैं जो हेतु विशेष के द्वारा वस्तुओं के संघटन से उत्पन्न होते हैं । संस्कृत धर्म अनितय, अस्थायी तथा मलिन होते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान
कल्पना तथा भ्रांति से रहित ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है । इसके चार प्रकार हैं१. इन्द्रिय ज्ञान २. मनोविज्ञान ३. आत्मसंवेदन ४. योगिज्ञान । १. इंद्रिय ज्ञान-इंद्रियों द्वारा उत्पन्न ज्ञान ।
२. मनोविज्ञान-इंद्रियों के द्वारा जब पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न होने पर जिन विचारों का निर्माण होता है इसे मनोविज्ञान कहते हैं। इंद्रियों के द्वारा पदार्थों का शान मन में उत्पन्न होता है, जब यह ज्ञान विचारों में परिवर्तित होता है तब वह विज्ञान या विशिष्ट ज्ञान बन जाता है, यही मनोविज्ञान है । . ३. आत्मसंवेदन-सुख-दुःख का अपने स्वरूप में प्रकट होना ही आत्मसंवेदन
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