________________
सब कुछ क्षणिक है, 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' जिसे हम शाश्वत समझते हैं, जैसे देश, काल निर्वाण आदि वे सब नाकारात्मक नाम ही हैं । सभी व्यक्ति वास्तव में क्षणिक हैं, धर्मों से युक्त हैं । इसलिए न कोई विचारक है न कोई विचार । सभी के अस्तित्व का एकमात्र लक्ष्य निर्वाण है, जिसमें चेतना भी नहीं रहती। चेतना वास्तव में किसी वस्तु को प्राप्त करने की आकांक्षा से प्रेरित रहती है इसलिए उसमें बंधन रहता है । हीनयान इन प्रश्नों को अनाश्यक समझता है । जैसे निर्वाण के बाद क्या रहता है ? अर्हत का आदर्श हीनयान की विशेषता है जिसमें व्यक्ति प्रयास एवं ध्यान द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है । हीनयान स्पष्ट रूप से यह निर्णय नहीं देता कि जैन लोगों ने अर्हत प्राप्त किया है वे बुद्धत्व भी प्राप्त करेंगे । हीनयान की मान्यता है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए किसी बाह्य महान शक्ति के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। बुद्ध हमारे लिए पूज्य हैं क्योंकि उन्होंने जो आत्मा उपदेश धरोहर के रूप में हमें प्रदान किये वह निर्वाण प्राप्ति के लिए पर्याप्त है इसलिए सही अर्थों में परम सत्य प्राप्त करने के लिए बुद्ध प्रचार करते हैं । न तो वे दिव्य हैं न कोई परमात्मा हैं । उन्होंने केवल मुक्ति के अलौकिक रहस्य को जाना और सारे विश्व को इससे अवगत कराया। बुद्ध तो वास्तव में प्रज्ञा संपन्न श्रेष्ठ मानव थे इसलिए बद्ध की पूजा करना उनका सम्मान करना मात्र है। इसलिए सगुण भक्ति का हीनयान में कोई स्थान नहीं है। हीनयान में मूर्तिपूजा आदि का कोई बिधान नहीं है, इनकी साधना सरल है और सत्कर्मों द्वारा आत्मसंस्कार के माध्यम से व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करना ही लक्ष्य होता है। इसमें एकांतिक साधना पर बल दिया गया है। महायान
कनिष्क के राज्य में सर्वप्रथम महायान का प्रचार हुआ, लेकिन उसके मूल सिद्धांतों को बुद्ध के उपदेशों में पाया जाता है । बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त करने के लिए यानों का उल्लेख किया है- अर्हतयान, प्रत्यक्ष बुद्धयान और बुद्धयान । जो अपना निर्वाण चाहते थे वे अर्हत कहलाते थे और उनकी साधना अर्हतयान के नाम से जानी गयी । जो अपने निर्वाण के साथ-साथ लोककल्याण का कार्य करना चाहते थे उनके मार्ग को प्रत्यक्ष बुद्धयान के नाम से जाना गया। लेकिन जिन्होंने अपने निर्वाण का चिंतन न करते हुए दूसरों के उद्धार करने का मार्ग अपनाया उन्होंने वास्तव में बुद्धयान को स्वीकार किया और वही महायान के नाम से जाना जाता है। महायान ने सर्व प्रथम बोधिसत्व सिद्धांत का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है कि जो बुद्धत्व प्राप्त करने की साधना में संलग्न है लेकिन अभी तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं किया, ये सभी बोधिसत्व बुद्ध की आराधना में संलग्न होकर, बुद्ध के भक्त हो गये । इन्होंने बुद्ध को देवता का स्वरूप दिया और यहीं से बुद्ध की मूर्तियों की पूजा का क्रम प्रारम्भ हो गया
और विधि मन्त्र आदि का प्रयोग अपनाया गया। महायानी उत्तरोत्तर बुद्ध और बोधिसत्वों की पूजा और भक्ति में विश्वास करने लगे। इन्होंने संस्कृत भाषा का व्यापक रूप से प्रयोग किया। कनिष्क के समय में नार्गाजुन ने विशेष रूप से महायान धर्म को प्रचारित किया पण २३, अंक ४
४८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org