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________________ बौद्ध धर्म दर्शन : एक दृष्टि माधोदास मुंधड़ा गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्विनी कुंज में ईसा पूर्व ५६७ ई० में हुआ था । गौतम के पिता शुद्धोधन एवं माता का नाम मायादेवी था । गौतम के जन्म के पश्चात् सातवें दिन उनकी माता की मृत्यु हो गयी, अतएव उन का लालनपालन उनकी विमाता महयापति ने किया। गौतम के जन्म के ग्रहों पर विचार कर ज्योतिषियों ने कहा था कि वह चक्रवर्ती सम्राट् होगा अथवा किशोर अवस्था में ही दुःखी, ज्वरी, मृत-शरीर तथा परिव्राजक को देखकर गृहस्थ-धर्म छोड़ देगा । दूसरी भविष्यवाणी से आशंकित होकर शुद्धोधन ने गौतम का विवाह एक क्षत्रिय राजा की की रूपवती कन्या यशोधरा से कर दिया। एक दिन गौतम जब उद्यान में टहल रहे थे तब एक बाण-बिद्ध राजहंस उनके निकट आकर गिर पड़ा । गौतम हंस की पीड़ा से द्रवीभूत होकर उसका उपचार करने लगे। उन्हें दुःख की मर्मान्तक अनुभूति हुई । इसी प्रकार कुछ समय के पश्चात् एक दिन कपिलवस्तु के मार्ग पर एक रुग्ण व्यक्ति फिर वृद्ध व्यक्ति और पश्चात् एक मृत व्यक्ति की शवयात्रा को देखकर वे मर्माहत हए और जीवन की क्षणभंगुरता एवं दुःखपरकता से बड़े चितित हुए। एक परिव्राजक को भी उन्होंने देखा । गौतम ने मन में निश्चय किया कि इन दुःखों का कारण खोजना चाहिए और साथ ही साथ उससे मुक्त होने का उपाय भी। इसके लिए उन्होंने मन में संकल्प किया कि दुनिया के सुखों का परित्याग कर संन्यास लेना आवश्यक है । इसलिए एक रात अपनी पत्नी यशोधरा एवं बेटे राहुल को निद्रा में ही छोड़कर गृह का परित्याग कर दिया । बौद्ध धर्म में इसे 'महानिष्क्रमण' कहा जाता है । उन्होंने सांख्योपदेशक, आराड के प्रवचनों को सुना पर उन्हें संतोष नहीं हुआ । छः वर्ष के पश्चात उन्होंने उरूबेला में चार आर्य-सत्यों की प्रत्यक्ष अनुभूति की और ४११ ईसा पूर्व वैशाखी पूर्णिमा को जब वे एक पीपल के वृक्ष के तले ध्यान मग्न थे, तब बुद्धत्व प्राप्त किया। तत्पश्चात् मिगदाय (सारनाथ) में पंच भिक्षुओं को प्रथम उपदेश दिया-जिसे 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है । गण राज्यों में उन्होंने संघ की स्थापना की और सामान्य जनता के कल्याणार्थ मागधी भाषा में धर्म व विनय की शिक्षा दी। बुद्ध ने तत्कालीन यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलि के विरुद्ध अहिंसा-धर्म पर विशेष आग्रह किया। गौतम बुद्ध ने सरल आचार धर्म का निर्देश करना ही उपयोगी व सार्थक समझा किन्तु बौद्ध धर्म के परवर्ती विद्वानों व आचार्यों ने उनके सिद्धांतों की गंभीर व्याख्या व दार्शनिक विवेचना की। बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् उनके उपदेशों को लेकर महातुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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