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________________ निक्षेप : भाषा और विचार की वैज्ञानिक प्रयोग पद्धति व साध्वी विमलप्रज्ञा अनुयोग जैनों की एक वैज्ञानिक और व्यवस्थित शिक्षा-पद्धति है । यह सत्य के समीप पहंचने की पगडंडी है, व्याख्या पद्धति है। अनुयोग का अर्थ है-सूत्र के साथ अनुकल अर्थ का योग करना ।' सूत्र अपने छोटे से आकार में संकड़ों अर्थों को समेटे हुए है । उसके साथ सम्यक् अर्थ योजना का नाम अनुयोग है । अनुयोग विधि में पहले गुरु शिष्य के लिए सूत्र के अर्थ का कथन करता है, उसके बाद कथित अर्थ को नियुक्ति से समझाता है । तीसरी बार में शिष्य को प्रसंग-अनुप्रसंग सहित संपूर्ण ज्ञान करा देता है । यही अनुयोग विधि है।' __अनुयोग के चार द्वार हैं-१. उपक्रम २. निक्षेप ३. अनुगम ४. नय । ये अनुयोग के चार प्रवेश द्वार हैं। बिना द्वार के नगर में प्रवेश नहीं हो सकता । एक द्वार होने से प्रवेश कठिनाई से होता है, कार्य में अवरोध पैदा होता है । चार मुख्य द्वार होने पर प्रवेश सुखपूर्वक हो सकता है । कार्य में भी अवरोध पैदा नहीं होता।' जिनभद्रगणी ने इसी सत्य को उद्घाटित करते हुए कहा--- इन चार द्वारों से कथन नहीं करने से युक्त अयुक्त बन जाता है और अयुक्त युक्त बन जाता है । अनुयोग विधि एक वैज्ञानिक पद्धति है। तत्त्व विचार के लिए इसी पद्धति का आलम्बन लिया गया। लेकिन जैन विद्वान इससे उदासीन रहे। उन्होंने इस पद्धति को अपनी लेखनी का विषय नहीं बनाया। जिससे जैन शिक्षा पद्धति का एक व्यवस्थित रूप शिक्षा जगत् के सामने प्रस्तुत नहीं हो सका। आज विचार जगत् में विरोध उत्पन्न हो रहा है । संघर्ष हो रहा है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उस वस्तु के सत्यापन के लिए अनन्त दृष्टियों की अपेक्षा रहती है । प्रत्येक वस्तु के लिए भाषा का प्रयोग वक्ता अपने विचारों के अनुसार करता है । किसी वस्तु की सिद्धि के लिए जब एकान्तिक भाषा का प्रयोग होता है तो वहां संघर्ष या विरोध की परिस्थिति बन जाती है और जब विचारों का विकेन्द्रीकरण होता है तो वहां चिन्तन की स्वस्थ परम्परा उभरती है। अनुयोग पद्धति विचारों को खुला आकाश देती है । चिन्तन को सम्यक और स्वस्थ बनाती है। दो दृष्टियों में संघर्ष पैदा करने की अपेक्षा उसे सत्य के समीप ले जाती है । अनुयोग के मार्ग में न कोई विरोध है और न संघर्ष । यदि जैन दार्शनिक अनुयोग पद्धति से दूसरे दर्शनों का मूल्यांकन करते तो वे शायद खण्डनात्मक मार्ग की अपेक्षा मण्डनात्मक मार्ग का आलम्बन लेते । जैन दार्शनिकों ने स्फोटवाद का खण्डन किया किन्तु यदि वे शब्द नय के माध्यम से विचार करते तो स्फोटवाद का सत्य तुलसी प्रशा, लाडनूं : खंड २३, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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