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________________ अन्यथा 'शास्त्रे नापदं प्रयुञ्जीत' इस नियम के कारण केवल धातुमात्र का प्रयोग संभव नहीं होगा । भाववाच्य में द्विवचनादि का प्रयोग इसलिए किया जाता है ताकि कृत्विहित प्रत्यय में द्रव्यतुल्यता आ जाये और द्रव्य के समान धर्म के प्रवेश के कारण लिङ्ग, संख्या इत्यादि का ग्रहण हो जाये, परंतु 'घञलो पुंसि विज्ञेयो' इस नियम से घञन्त प्रयोग पुल्लिङ्ग में ही होते हैं । यथा साधुः पाकः, साधू पाको, साधवः पाकाः इत्यादि । तात्पर्य यह है कि भाववाच्य में कृत्प्रत्ययों का प्रयोग साधुतामात्र के लिए किया जाता है और जहां कहीं भी द्विवचनादि का प्रयोग किया जाता है वहां 'कृदभिहितो भावो द्रव्यवत्प्रकाशते' इस नियम से किया जाता है । नैयायिकों के अनुसार 'एवानाहत्तुं व्रजति' यहां एध पद से काष्ठ की स्मृति होती है । द्वितीया विभक्ति से कर्मता की स्मृति होती है । आङ् पूर्वक हृ धातु से आहरण की स्मृति होती है । तुम् प्रत्यय से उद्देश्यता की स्मृति होती है । आख्यात से कृति की स्मृति होती है । आश्रयत्व संबंध है । इस प्रकार इस वाक्य से 'एधवृत्ति - कर्मतानुकूलाहरणोद्देश्य कव्र जनानुकूलकृत्याश्रयः १९ ऐसा शाब्दबोध होता है । वैयाकरणों के अनुसार प्रकृत वाक्यस्थल से 'एधकर्म कानुकूलाहरणोद्देश्य कव्रजनानुकूलवर्त्तमानकालिकव्यापार:' ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'एधकमंकानुकूला आहरणोद्देश्यकव्रजनानुकूला वर्त्तमानकालिका भावना' ऐसा शाब्दबोध होता है । ११२९ सर्वनाम पद किसी भी भाषा की वाक्यव्यवस्था में सर्वनाम पदों की महती भूमिका है । सर्वनाम पद हैं यत्, तत् इत्यादि । उन यत्, तत् इत्यादि सर्वनाम पदों का शक्य है घट इत्यादि और शक्यतावच्छेदक है घटत्व इत्यादि -- तस्य शक्यं घटादिकं शक्यतावच्छेदकञ्च घटत्वादिकम् । इस विषय में नव्य नैयायिक कहते हैं कि यद्यपि सर्वनाम पद यत् तत् इत्यादि पदों से घट, पट इत्यादि अनेक पदार्थों का बोध होता है, परंतु बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म से युक्त जो अर्थ हो वही तत् इत्यादि पदों से लेना चाहिये अथवा तत् इत्यादि पद बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म से युक्त अर्थ का बोध करवाये- - इस प्रकार के ईश्वर - संङ्केत को स्वीकार करने कारण तदादि सर्वनामों में बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म से युक्त शक्ति के ऐक्य के कारण नानार्थकता नहीं है, जैसे कि हरि इत्यादि पदों में हैतथा च हरिपदादिवन्न नानार्थमेव तात्पर्यग्रहस्तु प्रकरणादिवत्पूर्वसङ्केतोपस्थितिरिति नवीनतार्किकाः । बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित धर्म कभी घटत्वादि में होता है। और कभी पटत्वादि में । उन समस्त घटत्व, पटत्व आदि का बुद्धि की विषयता के अवच्छेदकत्व से उपलक्षित अर्थ में ही अन्वय होता है । यथा 'तत्र घटोऽस्ति तमानय' इस वाक्य में बुद्धि की बिषयता घट में है और बुद्धि की विषयता का अवच्छेदकत्व घटत्व में है । बुद्धि की विषयता का अवच्छेदकत्व घटत्व में होने के कारण बुद्धि की खण्ड २३, अंक १ ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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