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________________ संपादकीय पाणिनीयेतर प्राचीन व्याकरण-परंपरा की शोध __ तुलसी प्रज्ञा में 'सम मेरिटस् ऑव का-तंत्र'-(पूर्णांक ९४) और 'वर्णमाला में जैन दर्शन'-(पूर्णांक ९५) शीर्षक से भारत में प्रचलित रही पाणिनीयेतर व्याकरणपरम्परा के कुछ संकेत दिए गए। माहेश्वर-परम्परा से विलग यह प्रत्याहार विहीन व्याकरण की पद्धति पश्चिमोत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय थी। सिद्धर्षिसूरि का 'उपमिति भव प्रपंचा कथा'-(दशवीं सदी) में इस पद्धति के प्रचलित होने का ब्यौरा है। उपर्युक्त 'वर्णमाला में जैन दर्शन'-जैसी सिधी पाटी की तरह यहां अनेकों पाटी विगत शताब्दी तक प्रचलन में रही हैं। दूसरी पाटी का एक विवरण इस प्रकार है--- _ 'सिधो वरणा समामुनायाः । चत्रु चत्रु दासाः दऊसवाराः। दसे समानाः । तेषु दुध्या वरणाः नसीस वरणाः । पुर वो हंसवाः। पारो दीरघा: । सरो वरणा विणज्या नामीः । इकार देणी सींधकराणीः । कादी: नीबू विणज्यो नामीः। ते विरघा: पंचा पंचा। विरघानाऊ प्रथम दुतियाः संषोसाईचा घोषा। घोषपितरो रती: । अनुरे आसका: निनाणे नामाः । अनेसंता जेरेल्लवा: । रुकमण संषोसाहा। आयती: विसुरजुनीयाः । कायतोजिह्वा मूलियाः । पायती पदमानीया। आयो आयो रतकसवारोः। पूरबो फल्यो रथा रथो पालरेऊ पदु पदुः। विणज्यो नामीः सरूवरू वरणानेतू । नेतक रमैया: खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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