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________________ उपपति के पास अभिसरण के उपयोगी वेषादि से युक्त नायिका के प्रति पति के आगमान की वार्ता उसकी अभिसरण का निषेध ही सामाजिकों के प्रति व्यंजित होता है। देश वैशिष्ट्य देश वैशिष्ट्य से भी वाच्य व्यंजक माना जाता है। यहां पर देश वैशिष्ट्य के द्वारा यह व्यंजित होता है कि यह दुर्जन स्थान ही संकेत के योग्य है। सखीवेश धारी अपने उपपति के साथ आई हुई प्रिय सखी को देखकर कोई नायिका अपनी सखियों से कह रही है यहां पर सखियों को पुष्प-चयन के लिए अन्यत्र भेजकर एक स्थान को निर्जन बताया गया है अतएव यहां देश वैशिष्ट्य है। काल वैशिष्ट्य वाच्य की व्यंजकता में काल वैशिष्ट्य को भी हेतु माना गया है । यहां पर काल वैशिट्य के द्वारा सायंकाल ही संकेत योग्य है। अत: प्रच्छन्न कामुक को शीघ्र यह व्यजित होता है । मम्मट ने इसका उदाहरण प्रस्तुत किया है.-- जिसमें प्रवास की ओर गमन करने के इच्छुक नायिका की नायक के प्रति यह उक्ति है कि वह गुरुजनों के अधीन नायक को प्रवास गमन से रोकने में असमर्थ है। इस काल के वैशिष्ट्य से नायक के प्रवास गमन से नायिका के मरण की अभिव्यंजना की गई है। यहां पर 'अद्य' पद से वसन्तकाल का निर्देश होता है। अतः इसी के वैशिष्ट्य से वाच्यार्थ की व्यञ्जकता मानी जाती है। आर्थी व्यञ्जना में निर्दिष्ट आदि पद से चेष्टादिक का ग्रहण किया गया है । चेष्टा के वैशिष्ट्य से भी वाच्यार्थ की व्यञ्जता सिद्ध होती है । जैसे वेष बदलकर अपने सम्बन्ध में नायिका की विशेष चेष्टाओं को जानने वाला कोई नायक अपने मित्र से कह रहा है। यहां परनायिका की चेष्टाओं का वर्णन वाच्यार्थ है। उसके द्वारा सहृदयजनों को एक विशेष अर्थ की प्रतीति हो रही है। यहां पर चेष्टा के द्वारा गुप्त प्रियतम के प्रति अपना विशेष अभिप्रायः प्रकट किया जा रहा है। इस प्रकार आर्थी एवं शाब्दी व्यञ्जना इन दोनों भेदों के विभाजक तत्त्व के रूप में अन्वय एवं व्यतिरेक को निर्णायक माना गया है। जहां पर शब्द के पर्यायान्तर के होने पर भी व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है वहां पर शब्द की अप्रधानता बनी रहती है। प्रधानता अर्थ की मानी जाती है। अतएव ऐसे स्थलों में आर्थी व्यञ्जना का अवसर उपस्थित होता है । तात्पर्य वृत्ति तात्पर्यवृत्ति का निरूपण दो रूपों में उपलब्ध होता है। प्रथम रूप की उपयोगिता मात्र अन्वयांश रूप वाक्यार्थ के लिए मानी गयी है। इसे अभिहितान्वयवादी खण्ड २३, अंक १ ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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