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________________ रहे । समारोह का यशस्वी संचालन डॉ० कुमारपाल देसाई ने किया। इस सार्वजनिक समारोह में डॉ. के. आर. चन्द्र के द्वारा दस वर्ष के कठोर परिश्रम से भाषिक दृष्टि से पुन: सम्पादित “आचारांग-प्रथम अध्ययन" का विमोचन (लोकार्पण) पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया के कर-कमलों द्वारा किया गया। इसके अतिरिक्त अन्य पांच ग्रन्थों का विमोचन भी विभिन्न महानुभावों के द्वारा किय गया। उसी दिन दुपहर को संगोष्ठी की प्रथम बैठक हुई। इसकी अध्यक्षता बहुश्रुत इतिहासविद तथा स्थापत्यविद डॉ० मधुसूदन ढांकी ने की। इस बैठक में चार विद्वानों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किये। संगोष्ठी की विशेषता यह थी कि हरेक शोध-पत्र पढ़ने के बाद श्रोता-वर्ग और विद्वानों द्वारा उस पर तात्त्विक तथा मार्मिक चर्चा होती थी, प्रश्नोत्तरी की जाती थी, संबंधित वक्ता के द्वारा उसका उत्तर दिया जाता था और अन्त में अध्यक्षश्री उसका मधुर समापन करते थे। उसके बाद ही दूसरा शोध-पत्र पढ़ा जाता था। इस कारण संगोष्ठी का वातावरण रसप्रद, जीवंत और तार्किक बन पड़ा। __ दिनांक २८ अप्रैल को दूसरे दिन प्रातः संगोष्ठी की द्वितीय बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता सुविख्यात भाषाशास्त्री डॉ० सत्यरंजन बनर्जी (कलकत्ता) ने की। इस बैठक में पांच शोध-पत्र प्रस्तुत किये गये जिसमें डॉ. सागरमल जैन, डॉ. पोद्दार, डॉ० बनर्जी आदि के वक्तव्य विशेष ध्यान आकर्षित करने वाले और मौलिक संशोधन युक्त थे। उसी दिन की दोपहर की अन्तिम (तीसरी) बैठक की अध्यक्षता डॉ० सागरमल जैन (बनारस) ने की जो जैन विद्या और भारतीय संस्कृति के गहन अभ्यासी हैं। उन्होंने इस बैठक का सुन्दर संचालन किया। इस बैठक में इस संगोष्ठी के पुरोधा डॉ. के. आर. चन्द्र सहित चार विद्वानों ने अपने वक्तव्य प्रस्तुत किये । इस संगोष्ठी में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथ और दिगम्बर मत के विद्वान उपस्थित रहे और जैनेतर विद्वानों की उपस्थिति भी विशेष ध्यान आकर्षित करने वाली थी । अत: यह संगोष्ठी किसी एक पक्ष या संप्रदाय की न होकर व्यापक रूप से विद्वानों की निष्पक्ष संगोष्ठी थी। प्राकृत भाषा और साहित्य को केन्द्र में रखकर सभी विद्वानों के शोध-प्रबंधों का सार यह था कि-१. भगवान् महावीर की भाषा अर्धमागधी थी। २. शौरसेनी से अर्धमागधी भाषा प्राचीन है। ३. जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी ही है। ४. शौर सेनी भाषा में आगम साहित्य नहीं है ऐसा नहीं है परन्तु वह अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा परवर्ती काल का है, प्राचीन नहीं है। संगोष्ठी के श्रोतागण एवं सक्रिय भाग लेने वालों में विख्यात साहित्यकार प्रा० जयंत कोठारी, सी. वी. रावल, गोवर्धन शर्मा, मलूकचंद शाह, नीतिन देसाई, वी. एम. दोशी, विनोद मेहता, वसंत भट्ट, विजय पंडया, कनुभाई सेठ, ललित भाई, निरंजना वोरा, जागृति पंडया, गीता मेहता तथा अन्य क्षेत्रों के विद्वानों की उपस्थिति बहुत ही संतोषप्रद रही। संगोष्ठी का विषय जटिल तथा शुष्क होते हुए भी वातावरण रूखा-सूखा न बन जाय उसके लिए डॉ. मधुसूदन ढांकी और डॉ० एस. आर. बनर्जी जैसे प्रतिभावंत तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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