________________
कल्की व सन्द्रकुपतस्
॥ देवसहाय त्रिवेद
श्री परमेश्वर सोलंकी ने नेपाल के सुमति तंत्र के शकराजा (तुलसी प्रज्ञा१६।१।३५-३७) तथा 'त्रिलोक सार' के कल्की राजा व मण्डाकोटस् (तुलसी प्रज्ञा १६।२।३५-३९) पर सामग्री प्रकाशित करके प्राच्यजगत् को नयी दिशा दी है। मैं स्वयं चिरकाल से आक्रान्त था कि किस प्रकार कल्की राज की सन्द्रकुपतस से समता की जाय । इस दिशा में श्री चन्द्रकांत बाली तथा श्री उपेन्द्रनाथ राय ने भी स्तुत्य कार्य किया है जो 'तुलसी प्रज्ञा' में प्रकाशित है।
हमारे इतिहास को पाश्चात्य विद्वानों तथा उनके अन्धानुयायी भारतीयों ने राजनीतिक कारणों से एकदम उलझाकर रख दिया है जिससे सत्यार्थ का पता चलना दुस्कर हो गया है। जब तक भारत का इतिहास भारतीय स्रोत पर आधृत तथा अन्य प्राप्त स्रोतों से परिप्लुत नहीं होता वह ग्राह्य न होगा । अतः हमें मूल में जाने की आवश्यकता है । आर्यों का बाहर से आगमन तथा सिकन्दर-चन्द्रगुप्त मौर्य की तथाकथित समकालिकता ही अभी तक हमारे आधुनिक प्रचलित इतिहास की पृष्ठभूमि हैं ।
सन् १९८८ अप्रिल २ को इलाहाबाद में दस विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधियों की सभा से एक संगोष्ठी हुई थी । डाक्टर कृष्णादत्त वाजपेयी ने इस सभा की अध्यक्षता की तथा डाक्टर जयशंकर त्रिपाठी इसके संयोजक थे। प्रकृत लेखक ने अपने सैद्धांतिक निबंध में प्रतिपादित किया कि सिकन्दर का भारतीय समकालिक गुप्तसम्राट् समुद्रगुप्त-Sandrocyptus सन्द्र कुपतस् है न कि चन्द्रगुप्त मौर्य जिसने १५३६ ई० पू० से १५०२ ई० पू० तक ३४ वर्ष राज्य किया। रमेशचन्द्र मजूमदार ने अपने विशाल ग्रन्थ में उसे सैण्डाकीटस् लिखा है किन्तु मिक्रिण्डल ने स्पष्ट लिखा है कि शुद्ध शब्द व पाठ सन्द्रकुपतस है । इस लेखक ने संगोष्ठी के सभी आक्षेपों को उत्तर सहित व अपना अभिमत "समाज धर्म एवं दर्शन"(त्रैमासिक)प्रयाग (वर्ष ६ अंक २ व ३) में प्रकाशित किया । इसका अनुमोदन भी उपेन्द्रनाथ राय ने अपने दो निबंधों में लिखा जो उसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ।
जब तक हम अपना इतिहास महाभारत युद्ध-तिथि को कहीं भी स्थिर मान कर न लिखेंगे जो सभी आलेख, साहित्य साक्ष्य परम्परा व ज्योतिगणना से सिद्ध हो सके, वह प्रमाणिक व सर्वमान्य न होगा। इस क्षेत्र में भारत युद्ध काल निर्णयार्थ समाज, धर्म एवं दर्शन, (८.१ तथा ८१२) दर्शनीय व विचारणीय है।
जिस प्रकार जैनागमों में ऋषभदेव से शान्तिनाथ तक १६ तीर्थङ्करों की आयु
सय २३, अंक !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org