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________________ इस प्रकार जैनकालगणना के साथ तीर्थकरों की परम्परा बहुत पुरानी है किन्तु संभवतः गुप्तकाल से पहले प्रतीकरूप से उसमें ऋषभनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर --कुल चार ही तीर्थंकर पूजनीय माने जाते थे जो क्रमशः प्रथम, सोलहवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर हैं। डॉ. देवसहाय त्रिवेद ने 'क्रोनोलोजी ऑफ इंडिया', १९६३ में भगवान् ऋषभ का काल ४८६०+३०४३ =७९०३ विक्रम पूर्व माना है जो २४ तीर्थंकरो की परम्परागत आयु को वर्षों में परिवर्तन करने से प्राप्त ६७१६ वर्ष ७ माह महावीर निर्माण तक+१००० बाद कल्कि (सैण्डकोटस) के होने और+ २५८ वर्ष सैण्ड्राकोटस से विक्रम तक के कालमान अर्थात् ६७१६+१०००+२५८= ७९७४-७२ वर्ष (महावीर जीवन) तुल्य है।" संदर्भ १. भगवान् महावीर के संबंध में कल्पसूत्र में लिखा है कि प्रथम अपने कर्म विपाक से उन्होंने ब्राह्मणी देवनंदा के गर्भ में प्रवेश किया, फिर हरिनेगमेषी देव के द्वारा क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में । यह घटना कंकाली टीला (मथुरा) में मिले एक फलक पर चित्रित है । जो खण्डित होते हुए भी पूरी कथा कह देता है। डॉ० बुह लर ने इस फलक का फोटो एपिग्राफियाइण्डिका, भाग-२ (पृ० ३१४ प्लेट २) में प्रकाशित कर कल्पसूत्र की कथा लिखी है। कंकाली टोला (मथुरा) से जनरल कनिघम को भी ४ मृ० मूर्तियां मिलीं जिन में दो हरिनेगमेषी की है और दो में दो महिलाएं हाथों में दो बच्चे लिए खड़ी हैं। देखें--कनिघम रिपोर्ट, भाग-२० पृ० ३६ प्लेट ४ २. विक्रम पूर्व ५४३ वर्ष से शुरू होने वाले देवपुत्र शक संवत् संबंधी जानकारी के लिए कृपया 'तुलसी प्रज्ञा', लाडनूं भाग १६ अंक, १ में (पृ० ३५-४०) प्रकाशित लेख 'सुमतितंत्र का शक राजा और उसका कालमान' देखें। ३. जनरल कनिघम ने सन् १८५३, १८६०, १८६३ में कंकाली टीले का निरीक्षण किया था। डॉ० फूहरर ने १८८८-८९, १८८९.९० और १८९०-९१ में टीले का एक्सप्लोरेशन किया। उसकी रिपोर्ट ३१ मार्च १८८९ में मथुरा से प्राप्त निम्न वस्तुएं दर्ज हैं १० श्वेतांबर जैन मंदिर के अवशेष और मूर्तियां, ८४ मूर्ति अवशेष, एक महावीर मूर्ति जिसपर २३ तीर्थंकरों का बोर्डर है; दो सं० १०३६ और ११३४ की विशाल मूर्तियां जो जिनपद्म प्रभनाथ की है; चार जैन मूर्तियों के पादासन जो सं० ११३४ के हैं; ७ बुद्ध मूर्ति अवशेष; एक बोधिसत्व; १० बुद्ध की उल्लिखित मूर्तियां; एक विशाल नृत्यांगना की मूर्ति; १९ बुधिष्ट रैलिंग पिसेज; १६ कोसबार; १२ रलिंग पिसेज; एक डोर जम्ब; एक पत्थर का बना कलापूर्ण छत्र; एक चौमुंहा सिंह स्तंभ; २४ मूर्तिफलक और एक बड़ा फलक जो शेल अक्षरों में उल्लिखित होने से महत्त्वपूर्ण है। कंकाली टीले के बाबत अनेकों रिपोर्ट प्रकाशित हैं । वहां खोदाई से ज्ञात तुलसी प्रथा १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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