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________________ कुण्डलिनी अथर्ववेद ( ११.४.१) के अनुसार सब कुछ इस प्राण के वश में है - ' प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे' । वहां ( ११.४.८) प्राण अपान — दोनों को नमस्कार किया गया गया है -- 'नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते' । यजुर्वेद ( ३४.३५ ) प्राणों को सप्त ऋषि कहता है जिनके बारे बृहदारण्यक (२.२-४ ) में कहा गया है- प्राणा वा ऋषयः । इमौ एव गोतम भरद्वाजौ । अयमेव गोतमः । अयं भरद्वाजः । इमौ एव विश्वामित्र जमदग्नी । अयमेव विश्वामित्रः । अयं जमदग्नि । इमौ एव वसिष्ठ कश्यप । अयमेव वसिष्ठः । अयं कश्यपः । वागेवात्रिः ॥ ये सप्त ऋषि बिना प्रमाद के जागृत रहते हैं और शरीर को धारण किए हुए हैं । इनकी संचेष्टाओं को प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, परिवह और परावह क्रम से सात प्रकार का कहा गया है । प्राण जो नाभि-मण्डल के ऊपर प्रवाहित होता है, जब नाभि मण्डल को भेद लेता है तो अपान हो जाता है और मूलाधार में अजगति पाकर पुनः उदित होता है। इस प्रकार समस्त क्रियाकलाप मूलाधार में स्थित त्रिवलयाकृति से होता है जिसकी अर्द्धमात्रा स्थिर होती है शेष चंचल । अपनी चंचलता के कारण वह बारंबार स्थानच्युत होती है और उसके स्थानच्युत होने प्राण संचालित होते हैं । यदि मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर में स्थिरार्द्ध के साथ आज्ञाचक्र से विशुद्ध और अनाहत को भी स्थिर कर लिया जाए तो समस्त चंचलता समाप्त होकर त्रिवलयाकृति ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कर स्थिर हो जाती है और कुण्डलिनी योग सध जाता है । सारांश यह है कि देह रूपी नगरी में वायु राजा की तरह रहता है जो अहर्निश उसकी देखभाल को बाहर भीतर गमनागमन करता रहता है । नासिका के दोनों छिद्रों में कभी पहले से कभी दूसरे से और कभी दोनों से। यह श्वास-प्रश्वास एक स्वाभाविक क्रम से चलता है और इसमें क्रमश: पंच तत्त्वों का उदयास्त होता रहता है जो शरीर के सांसारिक व्यापार को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करता है । इन तत्त्वों का उदयास्त जानना, श्वास प्रश्वास को उसके स्वाभाविक अनुक्रम में रखना और शरीरव्यापार में व्यतिक्रम न होने देना ही स्वर योग का मूल ध्येय है । स्वरयोग को साधकर सिद्धि पाना और प्रमादवश जब तब की भूल से शरीर में दोष व्यापने पर उसका शोधन करना, रोग आदि से मुक्ति और अन्य प्राणी के दुःख निवारण का प्रयास आदि इसके दूसरे कार्य हैं । एतदर्थं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का एक अनुक्रम है । दूसरा क्रम कर्मयोग करते हुए कुण्डलिनी जागरण का प्रयास है और तीसरा भूत् शुद्धि द्वारा मंत्र साधन कर लेने का एक उपाय है । जप-तप द्वारा स्वार्थसिद्धि का भी एक प्रकार है । इसी प्रकार भक्तियोग से राजयोग तक अनेकों मार्ग हैं किंतु हठ बिना राजयोगो राजयोगं बिना हठः । तस्मात्प्रवर्तते योगी हठे सद्गुरूमार्गतः ॥ खण्ड २३ अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only ११५ www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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