SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. तारण : मुख मण्डप के सम्मुख भाग में मूर्ति एवं वास्तु कला का अाश्चर्य जनक समन्वित रूप तोरण के रूप में उपलब्ध होता है। खजुराहो में सभी मन्दिरों के प्रवेश द्वार पर मकराकृति तोरण निर्मित हैं और वे अर्धमण्डप से जुड़े हैं परन्तु उड़ीसा स्थित भुवनेश्वर मन्दिर का तोरण ओसिया के तोरण द्वार से तुलनीय है । विवेचित तोरण द्वार के उत्तर पर एक अभिलेख अंकित है जिसके अनुसार १०१८ में इनका निर्माण हुआ था । इसके दोनों स्तम्भ महापीठ पर स्थापित हैं । तदुपरान्त पश्चिमी भारत शैली के अनुरूप भिट्ट, छज्जिका जाड्यकुम्भ पुनः छज्जिका, ग्रासपट्टिका गजपीठ, नरपीठ कुम्भ एवं कुम्भिका क्रमशः निर्मिति है । कुम्भिका पर चतुः दिशाओं में जैन तीर्थकरों की मूर्तियां सुशोभित हैं । इस स्तम्भ के जंघा भाग पर जीवन्त स्वामी महावीर का चतु: दिशाओं में प्रदर्शन हुआ है। तोरण के उत्तरंग पर दोनों पार्श्व में तिलक एवं घण्ट तथा मध्य में वृहदाकार तिलक आकृति की संरचना है जिसमें जिन देवता स्थापित है जो मन्दिर के मुख्यईष्ट देवता को प्रदर्शित करते है । इसके दोनों पार्श्व में विशाल मयूर अपनी ग्रीवा मोड़कर बैठा हुआ प्रदर्शित है। भ्रमणिका : - मुख्य मन्दिर के पृष्ठ भाग में अष्ट स्तम्भों पर आश्रित यह संरचना है । वालानक :-- - तोरण से कतिपय दूरी पर ( कुछ मीटर) एक वृहदाकार वर्तुल चन्दोवा अथवा गोलाम्बर का निर्माण हुआ है जो सोपान श्रृंखला के तुरन्त ऊपर है । इस अंग का भी अनेक चरणों में पुनः निर्माण होता रहा । उल्लेख्य है कि उक्त स्थल पर मेरे प्रवास के समय इसका निर्माण कार्य चल रहा था तथा स्तम्भों पर आश्रित वर्तुलाकार छत की संरचना इस प्रकार की जा रही थी मानों अपने मूर्ति शिल्प एवं वास्तु की दृष्टि से वह आबू स्थित विमल मन्दिर के चन्दोवा की प्रतिकृति ही हो । भण्डारकर, ढाकी एवं प्रो. हॉण्डा ने भी इसके पुनर्निर्माण के अनेक चरणों का उल्लेख किया है । वृहदाकार चन्दोवा के अनेक स्तम्भों में से कतिपय प्राचीन स्तम्भ ही लगाये गये हैं । परन्तु कतिपय स्तम्भ पूर्णतः नवीन भी लगा दिये गये हैं । षोडश अफसराओं को इसके रूप कण्ठ पर अंकित किया है । कतिपय स्तम्भों पर अभिलेख अंकित है । जो प्रायः विक्रमी संवत १२३९ के हैं। इनमें उत्तरी दिशा में रथिका अंकित अभिलेख अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । यह जैन मन्दिर प्रशस्ति अभिलेख (वि. सं. १०१३ ) के नाम से प्रसिद्ध है ।" उभयमुखी चतुष्की :- मूलतः यह अंग वालानक के पूर्वी छोर पर निर्मित था परन्तु वर्तमान समय में यह नष्ट हो चुका है तथा मात्र नवनिर्मित वालानक में मुख्य मार्ग से प्रवेश के समय एक लघु चतुष्की स्वरूप निर्मित है । ५. देवकुलिकाएं :- मन्दिर के प्रांगण में सात लघु देवालय अवस्थित हैं जिन्हें जैन धर्म के अनुसार देवकुलिका की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इनमें मुख्य मन्दिर के दक्षिण पार्श्व में अर्थात् पूर्वी दिशा में तीन तथा वामपार्श्व (पश्चिमी दिशा) में चार देवकुलिकाएं है । यह सभी मन्दिर मूर्ति एवं वास्तु के विशिष्ट स्वरूप को १०६ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy