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'बहुतों ने यह किया है इसलिए मुझे लोगों के अनुसार ही करना चाहिए'-- यदि इस मान्यता के आधार पर चला जाए तो मिथ्यादृष्टि वाले व्यक्तियों के
धर्म (कर्तव्य) का कभी परिहार नहीं हो सकता। २. स्तोका आर्या अनार्येभ्यः, स्तोका जैनाश्च तेष्वपि । सुश्राद्धास्तेष्वपि स्तोका, स्तोकास्तेष्वपि सत्क्रियाः ।। अनार्यों से आर्य थोड़े हैं, आर्यों से जितेन्द्रिय पुरुष थोड़े हैं, उनसे सुश्रावक थोड़े हैं और सुश्रावकों से सक्रिया करने वाले श्रावक थोड़े हैं । ३. श्रेयोथिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे च न । स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मशोधकाः॥ लोक या लोकोत्तर में श्रेयस् की कामना करने वाले थोड़े ही होते हैं। इस संसार में जैसे रत्नवणिक् थोड़े होते हैं वैसे ही अपनी आत्मा का शोधन करने वाले भी थोड़े ही होते हैं। ४. एकोऽपि शास्त्रनीत्या यो, वर्तते स महाजनः । किमज्ञसाथैः शतमप्यन्धानां नैव पश्यति ॥ जो व्यक्ति अकेला रहकर भी शास्त्र की नीति के अनुसार वर्तन करता है, वह महाजन है । मूर्ख व्यक्तियों के समूह से क्या ? सैकड़ों अंधे एकत्रित हो जाने पर
भी वे देखने में समर्थ नहीं होते । ५. यत् संविग्नजनाचीणं, श्रुतवाक्यरबाधितम् । तज्जीतं व्यवहाराख्यं, पार्यपर्यविशुद्धिमत् ॥ जिस विधि का आचरण संविघ्न व्यक्तियों ने किया है और जो शास्त्र-वाक्यों से अबाधित है, उसे जीत व्यवहार कहा जाता है और वह परम्परागत होकर भी विशुद्ध है। ६. यदाचीर्णमसंविग्नैः श्रुतार्थानवलम्बिभिः । न जीतं व्यवहारस्तदन्धसंततिसंभवम् ।। शास्त्रों का आलंबन लिए बिना जिस मार्ग का आचरण असंविग्न व्यक्तियों ने किया है, वह जीत व्यवहार नही कहलाता। वह तो अंध-परम्परा का अनु-गमन मात्र है। ७. आकल्पव्यवहारार्थ, श्रुतं न व्यवहारकम् । इतिवक्तुमहत्तन्त्रे, प्रायश्चित्तं प्रदर्शितम् ।।। जो ऐसा कहता है -- श्रुत का प्रयोजन है कल्प का प्रवर्तन करना । श्रुत स्वयं व्यवहार का नियामक नहीं है ? ---ऐसे व्यक्ति के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। ८. तस्माच्छ तानुसारेण, विध्य करसिकर्जनः ।
संविग्नजीतमालंब्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी ॥ इसलिए विधि में एकरस होने वाले व्यक्ति श्रुत के अनुसार संविग्नजीत का आलंबन लें । यही भगवान् की आज्ञा है।
खंड २२, अंक २
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