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________________ 'रत्नावली' में अलंकार-सौन्दर्य ज लज्जा पंत 'अलङ्करोति इति अलङ्कारः' यह अलङ्कार शब्द की व्युत्पत्ति है। इसके अनुसार शरीर को विभूषित करने वाले अर्थ अथवा तत्त्व का नाम अलङ्कार है। अलङ्कार दो शब्दों के मेल से बना है-अलम्+कार। जिस प्रकार कटक, कुण्डल आदि आभूषण शरीर को विभूषित करते हैं, इसलिए अलङ्कार कहलाते हैं उसी प्रकार काव्य में अनुप्रास, उपमा आदि काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ को अलंकृत करते हैं इसीलिए अलङ्कार कहलाते हैं । शोभावर्द्धक तत्त्व अलङ्कार कहलाता है। आचार्य दण्डी काव्यशोभाकारक धर्म को अलङ्कार कहते हैं काव्य शोभाकरान् धर्मानलंकारान्प्रचक्षते।' आनन्दवर्द्धन ने शब्दार्थभूत काव्य साहित्य का आभूषण धर्म अलङ्कार माना अङ्गाश्रितास्त्वलंकारः मंतव्या कटकादिवत् ।। मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' के अष्टम उल्लास में अलङ्कारों का लक्षण बताते हुए कहा है उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ ___ अर्थात् अलङ्कार 'जातुचित्' कभी-कभी ही उस रस को अलंकृत करते हैं, सदा नहीं । इसलिए ये काव्य के अस्थिर धर्म हैं। विश्वनाथ कविराज के अनुसार अलङ्कार शब्दार्थ का अस्थिर या अनित्य धर्म है, जो काव्य की शोभा का उत्कर्षक होता है शब्दार्थयोरस्थिराः ये धर्माश्शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ॥' पंडित जगन्नाथ की दृष्टि में काव्य की आत्मा उत्तम व्यंग्य का सुन्दर संवर्धक तत्त्व अलंकार है काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलङ्काराः ।। उक्त विविध परिभाषाओं के आधार पर अलङ्कार सम्बन्धी निम्न तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है १. यह काव्य का आन्तरिक अथवा अनिवार्य धर्म नहीं है, केवल बाह्य शोभादायक है। खण्ड २२, अंक २ १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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