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________________ आंखें कमल की तरह सुन्दर है । इतना ही नहीं क्योंकि भंवरे सुन्दरता के कारण कमल पर कभी नहीं मंडराते । कमल पर उनके भ्रमण का कारण है कमल का मधुर रस, उसकी कोमलता, मृदुता व स्निग्धता । " मथे हुए दूध की उपमा भी अत्यधिक स्वच्छता का द्योतक है। मथा हुआ दूध जिस सफेदी को प्राप्त होता है वैसा ही उसकी आंखों का मध्यभाग स्वच्छ है जहां से विकार का कालापन कोसों दूर है । " और कामदेव भी जिसका अनुसरण करने वाला है अर्थात् जिस सौन्दर्य के आगे कामदेव का सौन्दर्य भी फीका पड़ जाता है, वास्तव में वह किसी सघन तपस्या का ही परिणाम हो सकता है, जिसे अत्यन्त शुभ नामकर्मोदय की अवस्था ही कहा जा सकता है । कवि ने रूप को विकार का कारण सिद्ध न करके विकास का कारण सिद्ध किया है । इसलिए कवि ने विदूषक के मुख से कहलाया तरुण विरूअरेहारहासेण फुल्लंति । ण उणो रइ रहस्सं जाणंति । ४ अर्थात् पेड़ पौधे रति का रहस्य नहीं जानते हैं फिर भी सौन्दर्य के रहस्य से विकसित हो जाते हैं । अतः वह सौन्दर्य कभी निन्दित नहीं कहा जा सकता । यदि कवि का दृष्टिकोण मात्र शृंगारिक होता तो रति के रहस्य को न जानने वाले पेड़ पौधों का विकास सौन्दर्य से न दिखाया होता। वहां फिर विकार ही प्रकाशित होता, विकास नहीं । तृतीय जवनिकान्तर में कवि ने उसे स्वच्छ एवं शुद्ध लावण्य के सामने सभी सुन्दर वस्तुओं को उपेक्षित सिद्ध कर दिया है फिर चाहे वह चम्पा की कली हो, हल्दी हो, शुद्ध तपाया हुआ सोना हो या फिर केसर के फूलों का ढेर भी क्यों न हो । १५ इसी जवनिका के तीसरे श्लोक में कवि ने वासनात्मक प्रेम व चैतसिक सौन्दर्य में बहुत सुन्दर ढंग से भेदरेखा खींची है । स्वप्न में कर्पूरमञ्जरी को देखकर राजा उसे पकड़ना चाहता है पर वह छुड़ाकर शीघ्र चली जाती है । यहां कर्पूरमञ्जरी का ग्रहण न होना ही शुद्ध प्रेम का प्रतीक है, अगर यहां वासना की हल्की सी गंध भी होती तो वह छुड़ाकर नहीं भागती, राजा उसे पकड़ने में सफल हो जाता। लेकिन कवि ने उसे अग्राह्य बनाकर उस शुद्ध सौन्दर्य की स्थापना में तथा प्राण प्रवाहित करने में सचमुच सफलता प्राप्त की है ।" यही तथ्य आगे जाकर और अधिक स्पष्ट हो जाता है । जब कवि कहता है कि जस्सि विअप्प घडणा.. * | १७ अर्थात् जहां सन्देह का निराश तथा विश्वास की भूमि की संप्राप्ति होती है, विषय का परित्याग होता है । आनन्द रस का प्रवाह प्रवाहित होता है तथा जहां १४० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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