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________________ के संस्कारणों में पदों की संख्या और पाठ में अन्तर आया है पर भूमिका में छपी सामग्री पूर्ववत् चली आ रही है । इसमें बाबू राधाकृष्णदास ने सूर का काल-निर्णय करने में 'मुनि पुनि रसन के रस लेख का उपयोग किया है। साथ ही भारतेन्दु का सूर-विषयक एक नोट छापा है जिसमें वे कहते हैं- "चौरासी वार्ता, उसकी टीका, भक्तमाल और उसकी टीका में इनका जीवन विवृत किया है। इन्हीं ग्रन्थों के अनुसार संसार को (और हमको भी) विश्वास था कि ये सारस्वत ब्राह्मण थे, इनके पिता का नाम रामदास, इनके माता-पिता दरिद्री थे, ये गऊघाट पर रहते थे, इत्यादि । अब सुनिये एक पुस्तक सूरदास जी के दृष्टिकूट पर टीका (टीका सम्भव है उन्हीं की है, क्योंकि टीका में जहां अलंकारों के लक्षण दिये हैं वह दोहे और चौपाई भी सूर नाम से अंकित हैं) मिली है । इस पुस्तक में ११६ दृष्टिकूट के पद अलंकार नायिका इत्यादि सब के क्रम से हैं और उनका स्पष्ट अर्थ और उनके अलंकार और नायिका इत्यादि सब लिखे हैं । इस पुस्तक के अन्त में कवि ने अपना जीवनचरित्र दिया है जो नीचे प्रकाश किया जाता है । अब इसको देखकर सूरदासजी के जीवनचरित्र और वंश को हमलोग और ही दृष्टि से देखने लगे हैं । ......... ... इस लेख से और लेख अशुद्ध मालूम होते हैं । " जो हो हमारी भाषा कविता के राजाधिराज सूरदासजी एक इतने बड़े वंश के हैं यह जानकर हम लोगो को बड़ा आनन्द हुआ ।"" श्री हरिश्चंद्रचन्द्रिका, खण्ड ६, संख्या ५ में छपे भारतेन्दु कृत सूर के जीवनचरित्र से ज्ञात होता हैं कि जिस हस्तलिखित पुस्तक का ऊपर उल्लेख है वह नवम्बर १८७८ में भारतेन्दु के पास थी। वह सरदार कवि की टीका से भिन्न किसी प्राचीनतर टीका से युक्त और अधिक पुरानी थी। उसके बारे में मीतलजी का वक्तव्य मननयोग्य है : ........... उसी के आधार पर उन्होंने अपनी टिप्पणी में सरदार कवि के पाठांतर और अर्थ - परिवर्तन की सूचना दी है । " साहित्य लहरी" के प्रथम पद पर ही भारतेन्दु जी की टिप्पणी इस प्रकार हुई है "सरदार कवि ने अपनी टीका में इस पद का पाठांतर भी किया है और अर्थ में भी बदला है ।" इस टिप्पणी के बाद उन्होने सरदार के मूल पद और उसकी टीका का पाठ भी उद्धृत किया है ताकि वह परिवर्तन स्पष्ट हो सके। इस प्रकार के परिवर्तन पद संख्या २,२१, २५, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३६ तथा ८८, ११०, ११२, ११३, ११५, ११६ और ११८ में भी बतलाये गये हैं । भारतेन्दुजी की प्रति में सं० ११७ वाले 'इन्द्र उपवन इन्द्र अरि दनुजेन्द्र इष्ट सहाय' वाले पद की टीका नहीं थी । इसे उन्होंने सरदार की प्रति उद्धृत करते हुए अपनी टिप्पणी में इसका उल्लेख इस प्रकार किया हैं "इस (पद) का टीका नहीं था, परन्तु सरदार कवि ने लिखा है, वह प्रकाश किया जाता है ।" सरदार कवि और भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रतियों में 'साहित्यलहरी' के पद क्रम तुलसी प्रज्ञा १३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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